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'सो तो सुनती ही रही हैं। इसमें नया क्या है ?' 'नया भी नहीं, पुराना भी नहीं । यह शाश्वत सत् का शाश्वत विधान है ।'
. . . . कि सैनिक कटते रहें, और सम्राट तथा उसका साम्राज्य फलते-फूलते रहें? वे गर्वसे इतराते रहें ?'
'सैनिक हो कि सेवक हो कि सम्राट हो, वह यहाँ अपने पूर्वाजित कर्म को ही भोग रहा है । यहाँ कोई किसी का तारनहार और मारनहार नहीं । अपने पीड़क, हत्यारे या परित्राता हम स्वयम् ही हैं।'
'पूर्वाजित कर्म ही सब कुछ है ? मनुष्य हो कर हमारा कोई कर्तृत्व नहीं ? परस्पर के प्रति हमारा कोई कर्त्तव्य नहीं ? तो सत्ता की स्वतंत्रता क्या ? अहिंसा और अपरिग्रह का आचार मार्ग किस लिये ?' ___ 'कर्तृत्व और कर्तव्य ही प्राथमिक है, देवी। उससे जब हम च्युत होते हैं, तभी तो आत्म पर कर्म का आवरण पड़ जाता है । हम स्वरूप और स्व-भाव को भूलकर पर में राग और द्वेष करते हैं। सोचते हैं, हम अन्य के कर्ता, धर्ता, हर्ता हैं । अन्य को बना या बिगाड़ सकते हैं । लेकिन वह यथार्थ का सम्यक् दर्श नहीं, सम्यक् ज्ञान नहीं । वह मिथ्या दर्शन है, मिथ्या ज्ञान है । वह मोहजन्य भ्रान्ति है। उसके वशीभूत हो कर हम कर्म के कर्ता होते हैं, और उसके बन्धनों में बंधते चले जाते
'तो अभी और यहाँ जो हर सबल दुर्बल पर चढ़ा बैठा है । जो करोड़ों जीवनों की कीमत पर सत्ता और सुख भोगता है, क्या उसे केवल अपना कर्मोदय जान मूक पशु की तरह सहते ही जाना होगा ? उसका कोई प्रतिकार या संहार मानुषिक कर्तव्य नहीं ?'
'अभी और यहाँ कर्त्तव्य है, कि समत्व में अचल होकर, हम आततायी को अपने ध्रुवत्व को धृति से पराजित कर दें। वही तो तुमने किया है, सुलसा ! कौन-सी तलवार वह कर सकती थी ?'
'महावीर के लिच्छवियों की तलवार मेरे बत्तीस बेटों को काट कर भी क्या हार गई?'
'हार गई, देवी, नहीं तो लिच्छवि महावीर तुम्हारे सामने अभियुक्त हो कर न आता ! वह क्षमा का याचक है, तुम्हारे द्वार पर।' . मनुष्य की क्या बात, वायुकाय के अदृश्य सूक्ष्म जीव तक इस समवेदना से सिहर आये । कण-कण, तृण-तृण रोमांचित हो गया। सुलसा के मुंह से चीख निकल पड़ी:
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