________________
'अर्हत् प्रसन्न हैं, कि तुम अपनी सत्ता में ध्रुव अटल रहीं । इसी लिये तो प्रभु तुम्हारी प्रीति के प्रार्थी हो गये।'
'उसमें मेरा क्या है ? वह सब तुम्हारा दिया हुआ है। तुम्हारी प्रीति ने ही प्रतीति जगा दी।'
'प्रभु यदि न आते आज, तो क्या तुम कभी न आतीं, सुलसा, उनके पास ?'
'किंकरी जाती कहाँ ? किसी दिन हार कर आती ही । लेकिन आज वह जीत गयी। जिनेश्वर स्वयं आये ।'
'न आते तो?'
'सच तो है, त्रिलोकी सत्ता के अधीश्वर एक दासी की कुटिया में कैसे आ सकते थे ?'
'आया न ! जब मुझे कोई नहीं पहचानता था, तभी आ गया था । वैशाली के स्वप्न-विहारी राजपुत्र की किसको पड़ी थी ?' ___'कहीं कोई तो थी ही। कि सपनों की राह तुम उसके सर्वस्व के स्वामी हो बैठे ।'
"फिर क्या हुआ, सुलसा?' __'तुम उसकी रक्तवाहिनियों में तरंगित हो उठे । तुमने उसकी सूनी गोद भर दी।'
'अनन्तर सुलसा?'
· · और हठात् दिव्य-ध्वनि का गोपन मुखर हो उठा । प्रकट मे शब्द सुनायी पड़ने लगे :
'त्रिलोकपति ने एक अकिंचन नारी के साथ मनमानी की। उसे प्रकाश के बत्तीस पुंज देकर उससे वापस छीन लिये । वह सर्वसत्ताधीश का खिलौना हो गई !'
'अर्हत् तुम्हारा अभियुक्त है। तीनों लोक के सारे अपराध उसके हैं । क्यों कि वह उनको सतत देख, जान और सह रहा है । अभियुक्त सम्मुख है, देवी, सारे आरोप शिरोधार्य हैं ।' ___'यह नारी-माँ के प्रश्न का उत्तर नहीं, स्वामी । उसके कष्ट का निराकरण नहीं।'
"निराकरण और निर्णय तो दूसरा कोई किसी का कर नहीं सकता, सुलसा । कोई माँ अपने जाये तक के अस्तित्व की निर्धारक नहीं। अपने अस्तित्व और स्थिति के अन्तिम निर्णायक हम स्वयम् ही हैं।'
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org