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अगले दिन बड़ी भोर ही, शंखनाद और तूर्यनाद के साथ सारी राजगृही में सम्वाद फैल गया : परम भट्टारक तीर्थंकर महावीर ने फिर हमारे नगर को पावन किया है। वेणुवन उद्यान में श्रीभगवान का समवसरण बिराजमान है।
शालवन के सेवक-पुरवे में भी इस खबर से हर्ष और रोमांच की लहर दौड़ गयी।
__ सुन कर सुलसा और नाग रथिक जहाँ खड़े थे, वहीं प्रणिपात में नत हो गये। वे इस सुख को शरीर में कैसे समायें। डूबी-डूबी आँखें ऊपर उठा कर मन ही मन सुलसा ने कहा : 'नहीं जाना था कि इतनी जल्दी आ जाओगे । भिनसारे ही आ कर दासी का द्वार खटखटा दिया।'
फिर प्रकट में अपने पति को बहुत ममता से निहारती हुई बोली :
'श्री भगवान स्वयं हमारे आंगन में आये हैं। चलो देवता, वे हमारी प्रतीक्षा में हैं।'
लोक के तनु-वातवलय से सिद्धालय तक व्यापती हुई ओंकार ध्वनि वेणुवन उद्यान के समवसरण में केन्द्रीभूत हो कर गूंज रही है।
भगवद्पाद गौतम ने उद्घोष किया : 'प्रभु की सती सुलसा और आर्य नाग रथिक श्रीचरणों में उपस्थित हैं।'
श्री भगवान की चुप्पी इतनी गहरी हो गई कि सबने उसकी छुवन को अनुभव किया । अनगिनती सजल आँखें प्रभु पर केन्द्रित हो गईं।
सुलसा आँखें न उठा सकी । जिस तेज को एक दिन अपने मुंदे गर्भ में चुपचाप धारण किया था, उसे वह खुली आँखों से कैसे सहे ? उसे तो समर्पित ही हुआ जा सकता है।
प्रभु की निरक्षरी दिव्य ध्वनि में एक निजी गोपनता आ गई। वह शब्द में अनुगुंजित न हुई । वातावरण में केवल भाव और सम्वेदन स्फुरित होता रहा । सारे श्रोता उसमें भींजते रहे। एक अनबोला सम्वाद चल रहा था :
'तुम आईं, सुलसा !' सुलसा डूबती-सी भरे गले से बोली : 'आने और न आने वाली मैं कौन होती हैं। स्वामी स्वयं ही आये ।' 'तुम्हारी सत्ता पर अधिकार करने नहीं आया मैं । तुम स्वतंत्र हो ।' 'वह सत्ता मैंने अपनी नहीं रक्खी । रख सकती, तो कभी न आती।' 'निदान तुम आईं, सुलसा !' 'मैं तो आज भी नहीं ही आई । आर्यपुत्र को ही आना पड़ा।'
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