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चैत्य-वन्दना करके महानुभाव अम्बड़ ने सुलसा से कहा :
'देवी, मेरा वचन है, तुम शाश्वत के चैत्यों में बिराजोगी। मैंने आर्हती सरस्वती के दर्शन पाये । धन्य भाग !'
कह कर संन्यासी तुरन्त उठ कर चलने कोहए। कि तभी सुलसा पयस् की झारी लेकर सम्मुख प्रस्तुत हुई । परिव्राजक ने पाणि-पात्र पसार कर तीन अंजुरि पयस् का आहार किया । सुलसा ने चंदनवासित लुंछनों से संन्यासी के अंगों का प्रक्षालन-लुंछन किया। और विनत हो रही । उसकी झुकी आँखों से ढरक कर आँसू आर्य अम्बड़ के चरणों पर टपकते रहे ।
आर्य अम्बड़ भारी पैरों वहाँ से प्रस्थान कर गये । मुड़ कर उन्होंने नहीं देखा । जहाँ स्वामी के वे सखा खड़े थे, वहाँ सुलसा ने अपना आँचल बिछा कर माथा रख दिया।
. . फिर उठ कर धीरे-धीरे वह पूजा-गृह में चली गई। द्वार उड़का लिये। स्वामी के सम्मुख जानुओं पर ढलकी-सी बैठी रह गई । मन ही मन बोली :
'तुमने अपनी दासी को याद किया। तुमने उसे बुलाया, पुकारा · त्रिलोकी में केवल इस अकिंचना की कुशल पूछी? इसे धर्मलाभ भेजा? . . किन्तु तुम्हारे प्रति मेरे रोष और प्रतिकार का अन्त नहीं । तुमसे सदा लड़ती ही तो रही हूँ। तुम्हें कम नहीं कोसा मैंने । तुम्हारे प्रति मेरी नाराजी की सीमा नहीं । लेकिन तुम हो, कि मेरे हर प्रहार के उत्तर में प्यार से मुस्कराते रहे ।' ___.. - उत्तर मिला या नहीं, मुझे नहीं मालूम । पर मेरे आर्यपुत्र ने मेरा नाम ले कर मुझे खुले आकाश में डाक दी है । मुझे बुलावा भेजा है । लिवा लाने आये, उनके सखा अम्बड़ परिव्राजक ।'
सुलसा की छाती जाने कैसी एक मीठी रुलाई से उमड़ती आई । बहुत धीरे से बोली :
'आऊँगी तुम्हारे त्रिलोक चक्रवर्ती दरबार में। तुमसे कम नाराज़ नहीं हूँ। मेरी लाज रख लेना । . . .'
सुलसा पर एक गहरी योग-तन्द्रा छा गई । उसे अपने गहराव में से सुनाई पड़ाः
'तुम क्यों कष्ट करोगी? मैं स्वयं आऊँगा तुम्हारे आँगन में भिक्षुक हो कर। क्या दोगी मुझे ?'
और सुलसा जैसे मनानीत सुख की सौरभ-सेज में विसर्जित हो रही।
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