SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४० सुलसा की वाणी एक साथ तरल और अनल हो आई : 'महावीर को तब से जानती हूँ, जब वे तीर्थंकर नहीं हुए थे । जब वे वैशाली के निरे स्पप्न-विहारी राजपुत्र थे । उनकी मृत्युंजयी तपस्या की भी साक्षी रही मैं । और उनके अर्हन्त रूप से भी अपरिचित नहीं हूँ मैं । और उन त्रिकालज्ञानी से मेरा दुःख अनजाना नहीं है । पर मुझे पता है कि हतपुत्रा मनुष्य की माँ को देने के लिये उनके पास कोई उत्तर नहीं है । वे अपने मृत्युंजयी हो सकते हैं, मेरे और मेरे बेटों के नहीं, आर्यपुत्र नागदेव के नहीं, तुम्हारे नहीं, किसी के नहीं । केवल अपने । उनका स्पष्ट वचन है, कि हर आत्मा अपनी कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता स्वयं ही है । वह किसी अन्य का दुःख हरने या त्राण करने में समर्थ नहीं । 'तो सुनो जयनी, जब अपनी कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता मैं स्वयं ही हूँ, तो फिर किसी जिन या तीर्थंकर के पास क्या झक मारने जाऊँ ? ऐसे असमर्थ अर्हन्त से मेरा क्या प्रयोजन हो सकता है ? जब अपने आँगन में बैठे महावीर तक को देखने-सुनने नहीं गई, तो यह पच्चीसवाँ तीर्थंकर किस खेत की मूली है ? नहीं जयना, मैं अपने लिये काफी हूँ, मुझे किसी त्राता, उपदेष्टा, अर्हन्त की जरूरत नहीं ।' कह कर सुलसा लौट कर द्रुत पगों से अपने पूजा गृह में जा कर बन्द हो गई । नागदेव और जयना आहत, पीड़ित ताकते रह गये । . उधर उत्तर के प्रांगण वर्ती समवसरण की मूर्धा पर विराजित पच्चीसवें तीर्थंकर ने अपनी यौगिक दूर-श्रवण शक्ति से सुलसा, नागदेव और जयना के इस सारे वार्तालाप को सुन लिया । और फिर तीन दिन वे अजस्र वाणी में दिव्य ध्वनि करते हुए लक्ष-लक्ष नर-नारी को मरण से तर जाने का अमृतोपदेश पिलाते रहे । साँस रोक कर पल-पल सुलसा की प्रतीक्षा करते रहे । पर उन हज़ारों-लाखों मानवों के महासागर में सुलसा का वह ऊषा - मुख उन्हें कहीं न दिखायी पड़ा । सारा जगत पच्चीसवें तीर्थंकर के दर्शन और प्रतिबोध - लाभ को आया । केवल मुलसा नहीं आयी । आखिर वे पच्चीसवें तीर्थकर अन्तिम रूप से निराश और उदास हो गये । और लक्ष-लक्ष आँखों के देखते उनका वह देवोपनीत समवसरण, बादल के महलो सा बिखर गया । और उसमें वे तीर्थंकर स्वयं भी जाने कहाँ लुप्त हो गये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy