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शुक्ल यजुर्वेद की देवंकरी विद्या कारगर हो गई । महानुभाव अम्बड़ परिव्राजक को पता चल गया कि सुलसा किसकी पर्युपासना करती है । वह अपने से बाहर के किसी ईश्वर, देवता या अर्हन्त की आराधना नहीं करती। वह अपने ही स्वाधीन आत्म की आराधिका है । क्या अपने ही को प्यार करने और पूजने की सामर्थ्य वह पा गयी है ? ___ महावीर तक की शरण में जाना उसने स्वीकार न किया ! अम्बड़ ऋषि को स्पष्ट प्रतीति हो गई, कि यही तो सुलसा की वह शक्ति है, जिसके बल उसने महावीर के हृदय में आसन जमा लिया है। और अपनी भक्ति से महावीर को उसने अपने ही भीतर उपलब्ध कर लिया है । उसकी चेतना में प्रेम ही प्रज्ञा और शक्ति में ज्वलित हो उठा है। भक्ति उसके चित्त में अनायास शक्ति के साथ समन्वित हो गई है । 'कस्मै देवाय' के अनादि प्रश्न का उत्तर उसने अपने संत्रास में से स्वयं ही प्राप्त कर लिया है। स्वयं महावीर उसके उसी केन्द्र में से बोले थे । सो वह भीतर समाधान पा गई थी, पर बाहर सृष्टि की माँ नारी का दावा रुद्र और अटल प्रश्न बन कर खड़ा था। अम्बड़ परिव्राजक को 'बृहदारण्यक उपनिषद,' का वह सूत्र स्मरण हो आया :
अथ पोऽन्या देसताम् उपास्ते अन्योऽसौ अन्यौ ऽ हम अस्माति
न स वेद, यथा पशुरेवं स देवतानाम् । -कि 'जो व्यक्ति भगवान को अपने से बाहर की सत्ता के रूप में पूजता है, वह उन्हें नहीं जानता। वह देवताओं के पशु के समान है।' . . क्या सुलसा इस जीव भाव से शिवभाव में उत्तीर्ण हो गई है ? एक सरल प्रेमिका नारी अपने प्यार के बल स्वयम् भगवान से बलवा करके उनके प्यार को सबसे अधिक अधिकारिणी हो गई ? · · · विचित्र है इस चैतन्य शक्ति का खेल ! कहते हैं कि अर्हन्त अनुग्रह नहीं करते । पर भाविक ही इस मर्म को समझेगा, कि इससे बड़ा अनुग्रह क्या हो सकता है ? केवल ज्ञान ही सत्य नहीं। महाभाव भी उतना ही सत्य है। अर्हन्त प्रकटत: अनुग्रह न करके भी चरम अनुगृह करते हैं। . . .
आर्य अम्बड़ के आश्चर्य और आनन्द की सीमा नहीं है । वे सुलसा के हृदयपद्म की सुगन्ध को पा गये हैं। उन्हें पता चल गया है कि क्यों त्रिलोकीनाथ ने सारे लोक को आँख से ओझल कर केवल सुलसा को 'धर्मलाभ' भेजा है।
· · ·और एक प्रातःकाल सुलसा अतिथि की राह देख रही थी। तभी एक तुंग काय भव्य गौर त्रिदण्डी संन्यासी ने 'नषेधिकी' बोलते हुए उसके द्वार में प्रवेश किया। देख कर सुलसा आल्हादित हो उठी। आवाहन करती हुई बोली :
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