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'प्यारी सुलसा, भूल जा महावीर को । हमारे पुरवे के बाहर पच्चीसवें तीर्थंकर प्रकट हुए हैं। अनेक देवेन्द्रों और माहेन्द्रों के स्वर्गों द्वारा वे समवसरित और सेवित हैं । चन्दन लेप-सी शीतल वाणी बोलते हैं । उनके दर्शन मात्र से सारे भवताप शान्त हो जाते हैं । चलो रानी, उनके दर्शन श्रवण द्वारा अपनी पीड़ा से निस्तार पाओ ।'
सुलसा अट्टहास करके हँस पड़ी :
आज तक तो चौबीस तीर्थकर ही सुनती आयी हूँ । ये पच्चीसवें तीर्थंकर अचानक कहाँ से टपक पड़े ? चौबीसवें और चरम तीर्थंकर तो इस समय लोक में केवल वर्द्धमान महावीर हैं। उनके होते और कोई पच्चीसवाँ तीर्थंकर कैसे हो सकता है । जान पड़ता है, जयना, कोई छद्म तीर्थंकर अपने इन्द्रजाल से सरल लोकजनों को ठगने निकल पड़ा है । मैं किसी भ्रान्ति में नहीं, जयना, और मुझे किसी जिनेन्द्र की दरकार नहीं !
जयना ने सुलसा की छाती में दबे दुःख से कातर हो कर कहा :
'एक बार स्वयं ही चल कर देख, सुलसा, तभी तो पतिया सकेगी कि सत्य क्या है और असत्य क्या है ?'
'मैं देख कर भी नहीं पतिया सकती, जयनी । स्वयं चरम तीर्थंकर महावीर का समवसरण विपुलाचल पर हुआ। तीनों लोक और तमाम चराचर सृष्टि ने उनका साक्ष्य प्रस्तुत किया । नरेश्वर, सुरेश्वर, असुरेश्वर, कीड़ी-कुंजर तक ने उनकी सर्वज्ञता का प्रमाण पाया। मैंने अपनी आँखों विपुलाचल पर देव-सृष्टियों के जाज्वल्यमान विमानों को उतरते और समवसरण रचते देखा । फिर भी मैं त्रिलोकपति अर्हन्त महावीर के समवसरण में न गई । फिर इस पच्चीसवें तीर्थंकर का मैं क्या करूँगी ! '
'तुम जैसी सती और ज्ञानिनी को ऐसा हठ नहीं शोभता, सुलसा । साक्षात् सर्वज्ञ अर्हन्त से तूने मुख मोड़ लिया । क्या सारी मनुष्य की जाति से तुम इतनी अलग हो, कि जीव मात्र प्रभु के दर्शनार्थ उमड़े और तुम न गईं ?'
'हाँ, जयना, मैं सबसे बहुत अलग जन्मी हूँ, अपनी माँ के गर्भ से ही । मुझ जैसी हतभागिनी और कहाँ पाओगी ? लेकिन अपनी ही आत्मा की पुकार को अनसुनी कर, किसी तीर्थंकर की वाणी में सान्त्वना कैसे खोज सकती हूँ ? किसी अर्हन्त ने आज तक यह आश्वासन नहीं दिया, कि वह अपने सिवाय किसी अन्य आत्मा का उद्धार कर सकता है ।
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