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वैजयन्ती सुन कर स्तब्ध रह गई। सुलसा के इस प्रश्न का सचमुच कोई उत्तर उसके पास नहीं। वह बहुत पराहत, श्लथ पगों से अपनी राह लौट गई।
दूर-दूर के अनेक जनपद महाकालेश्वर भगवान शंकर के दर्शन को उमड़े। उनकी प्रलयंकारी ताण्डव लीला, और शंकरी वाणी से उनके सारे पाप-ताप शान्त हो गये । पर महेश्वर शंकर ने स्पष्ट लक्षित किया, कि लक्ष कोटि मानवों के इस मुण्ड-समुद्र में सुलसा का वह तपोज्ज्वल चेहरा कहीं न दिखाई पड़ा। मनुष्य मात्र उनके दर्शनार्थ आये, केवल सुलसा नहीं आई।
देवाधिदेव शंकर ने पहली बार अपने परमेश्वरत्व को, अपनी मृत्यंजयी महाकाल सत्ता को पराजित पाया। वे एक अकिंचन मानवी से हार गये। वे बहुत हतप्रभ और आहत हो कर, लाखों आँखों के देखते, हठात् अन्तर्धान हो गये।
आर्यपुत्र नाग रथिक सदा एकाग्र चित्त से अपनी रथशाला के भीतर, नाना आविष्कार, निर्माण और शिल्प में संलग्न रहते थे। बाहर की दुनिया से कोई प्रयोजन नहीं रखते थे। वे जो भी कुछ करते, उसमें मात्र सुलसा के इंगित का अनुसरण करते थे।
एक दिन नाग रथिक स्वयं आश्चर्य से भरे सुलसा के पास, पूजा-गृह में दौड़े आये । हर्षित और रोमांचित होते बोले :
'देवी, राजगृही की उत्तर दिशा में, ठीक हमारे पुरवें के प्रांगण में जिनेन्द्र भगवान का भव्य दिव्य समवसरण देवों ने रचा है। उसकी गंधकुटी पर आसीन तीर्थंकर प्रभु भव्यों के कल्याण हेतु धर्म देशना कर रहे हैं। विपुलाचल पर हम महावीर प्रभु के समवसरण में न गये, तो जान पड़ता है वे स्वयं हमें दर्शनउपदेश और आश्वासन देने को हमारे पुरवे के ठीक बाहर आ उपस्थित हुए हैं । चलो देवी, दर्शन करें, और उन प्रभु का अनुगृह प्राप्त करें।'
क्षण भर सुलसा चुप रही । फिर तपाक से बोली :
'आप किस भ्रांति में पड़े हैं, आर्यपुत्र । किसी तीर्थंकर को हमारी पड़ी नहीं, वह महावीर हो कि और कोई । और महावीर क्यों आने लगे ? आते तो तभी आ जाते मेरे द्वार, जब विपुलाचल पर उनका प्रथम समवसरण हुआ । जानती हूँ, हमारे जीने-मरने से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं । नहीं, मुझे किसी महावीर के दर्शन नहीं करने । उसे दर्शन देना होगा तो स्वयम् मेरे द्वार पर आयेगा !' ___ कहती हुई वह पूजा-गृह से बाहर आ कर, द्वार पर अतिथि की प्रतीक्षा करने लगी । नाग रथिक मन मारे, मूक उसके पीछे खड़े रह गये। तभी सुलसा की एक अन्तरंग प्रिय सखी जयना आ कर बोली :
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