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निखिल के विधाता ब्रह्मा अपनी इस पराजय से म्लान और उदास हो गये। वे सब के देखते-देखते वहाँ से अन्तर्धान हो गये।
फिर एक सवेरे राजगृही में एक उदन्त फैला, कि नगर के दक्षिण द्वार पर गरुड़ के वाहन पर आरूढ़ साक्षात् लोक-प्रतिपालक विष्णु भगवान प्रकट हुए हैं। वे सहस्र बाहु, सहस्राक्ष और सहस्रपाद जनार्दन हैं । उन्होंने शंख, चक्र, गदा, पद्म, खड़ग् आदि लोकत्राण के अनेक उपकरण धारण किये हैं। उनके वाम कक्ष में भगवती लक्ष्मी विराजी हैं। वे वर्तमान लोक के परित्राण की अमोघ मंत्र-वाणी उच्चरित कर रहे हैं। · ·और लो, राजगृही की समस्त प्रजा उनके दर्शन को उमड़ पड़ी है।
उस दिन फिर सुलसा की कुछ अन्तरंग सहेलियों ने आ कर उससे अनुरोध किया कि : 'चलो सुलसा, परित्राता नारायण स्वयं तुम्हें दर्शन देने आये हैं । वे तुम्हारे पुत्रों को जीवनदान देकर तुम्हारे कष्ट को हर लेंगे।'
सुलसा को सुनकर हँसी आ गई । वह दृढ़ किन्तु कातर रोष के स्वर में बोली :
'कैसे विचित्र हैं वे परित्राता, प्रतिपालक विष्णु कि मेरे पुत्रों को उन्होंने अपनी मौत मरने को छोड़ दिया। और अब वे उन्हें जीवनदान देने आये हैं ! नहीं, मुझे ऐसे विष्णु के दर्शन नहीं करने । मैं अच्छी तरह जान गई हूँ, कि मेरा कोई कर्ता, धर्ता, हर्ता नहीं । मेरा कोई पालनहार या तारनहार नहीं । वह मैं स्वयं ही हूँ । वह मेरे दिवंगत बेटे स्वयं ही हैं। यदि ऐसे कोई तारनहार विष्णु सचमुच कहीं अस्तित्व में हों भी, तो मुझे उनके दर्शन नहीं करने, मुझे उनकी वाणी नहीं सुननी । मुझे उनकी जरूरत नहीं है। मैं अब किसी भ्रान्ति में नहीं हूँ।' ___ सहेलियाँ निरुत्तर हो गई। सच ही सुलसा के प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं । वे सहेलियाँ बहुत हताश और किंकर्तव्य-विमूढ़ हो, अपनी राह लौट गईं।
नगर के दक्षिण द्वार पर सारी राजगृही साक्षात् नारायण महाविष्णु के दर्शन को उमड़ी। उनकी त्राणदायिनी वाणी सुन कर आश्वस्त हुई।
किन्तु महाविष्णु ने स्पष्ट लक्षित किया, कि सारा आसपास का लोक उनके दर्शनार्थ आया, लेकिन अकेली सुलसा ही उस लाखों की भीड़ में कहीं न दिखाई पड़ी।
लोक के पालनहार और तारनहार नारायण इससे बहुत हताश और उदास हो गये । हार मान कर वे सबके देखते-देखते अन्तर्धान हो गये।
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