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उपयोग उन्होंने कभी न किया था। लेकिन इस समय वे एक ऐसे दुर्गम से गुजर रहे थे, कि जहाँ रास्ता असूझ हो गया था। तभी शुक्ल यजुर्वेद की एक अमोघ विद्या उनके भीतर प्रकट हुई। उसने कहा : 'ब्रह्मर्षि अम्बड़ देव, मुझे आज्ञा दें,
और मैं आपको राजगृही में कहीं भी, बड़े से बड़े देवता, देवाधिदेव, तीर्थंकर के रूप में प्रकट कर दूंगी। तब आपको पता चल जायेगा कि सुलसा का आराध्य कौन है ?'
विद्या अन्तर्धान हो गयी । और आर्य अम्बड़ को मार्ग का संकेत मिल गया।...
एक सवेरे सारी राजगृही में उदन्त फैल गया, कि नगर के पूर्व द्वार पर साक्षात् ब्रह्मा प्रकट हुए हैं। वे पद्मासन में बिराजमान हैं। उनके चार मुख
और चार भुजाएँ हैं। उन्होंने ब्रह्मास्त्र, तीन अक्षसूत्र तथा जटा-मुकुट धारण किये हैं। उनके बायीं ओर सावित्री बिराजी हैं। और पास ही उनका वाहन हंस खड़ा है । और वे वर्तमान काल की विधात्री वाणी बोल रहे हैं।
सो ब्रह्मा के दर्शनार्थ राजगृही के तमाम आबाल-वृद्ध-वनिता नर-नारी, नगर के पूर्व द्वार को ओर उमड़ पड़े हैं। सुलसा की सहेलियाँ भी दर्शन को चली तो उसके द्वार पर पहुंची और बोली कि : 'चलो देवी, नगर के पूर्व द्वार पर साक्षात् ब्रह्मा अवतरे हैं, हम भी उनके दर्शन का पुण्य-लाभ करें ।'
सुलसा चुप रहो । उसने कोई उत्तर न दिया। सहेलियों के बहुत निहोरा करने पर वह धीरे से बोली : ___'मुझे किसी ब्रह्मा के दर्शन नहीं करने । मैं जान गई हूँ कि मेरा कर्ता, धर्ता, हर्ता कहीं अन्यत्र कोई नहीं। वह मैं स्वयं ही हूँ। यदि कहीं कोई सृष्टि के कर्ता, विधाता ब्रह्मा होते, तो ऐसी ग़लत सृष्टि क्यों कर रचते, जिसमें मेरे निर्दोष बत्तीस बेटे, बिना किसी अपराध के ही काट डाले गये । ऐसी विषम सृष्टि जिन्होंने रची है, ऐसे कोई ब्रह्मा सचमुच कहीं हों भी तो मुझे उनके दर्शन नहीं करने ।'
सहेलियाँ मुँह ताकती रह गई । उनके पास सचमुच ही सुलसा को देने को कोई उत्तर नहीं था। वे बहुत निराश हो कर ब्रह्मा के दर्शन को चली गई।
• राजगृही के लाखों नर-नारी ब्रह्मा के दर्शन को आये । उनकी वाणी में नहाये, और कृतार्थ हुए। लेकिन ब्रह्मा ने स्पष्ट लक्षित किया : कि केवल सुलसा ही उनके दर्शन को नहीं आई है।
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