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________________ २३३ कन्याएँ कठोर व्रत और तपस्याएँ करती थीं। उस चक्रवतियों के चक्रवर्ती ने सुलसा जैसी एक अदना, अनजान, अनसुनी नारी का कुशल-क्षेम पुछवाया ? एक नगण्य रथिक-पत्नी को धर्मलाभ भेजा ? एक त्रिदण्डी परिव्राजक के हाथ, खुले आम, असंख्य मनुज, दनुज, देव, सम्राट, तिर्यञ्चों को भरी सभा में ? अम्बड़ परिव्राजक के आश्चर्य की सीमा नहीं है । वे राजगृही की राह पर पवन के वेग से पदयात्रा कर रहे हैं । वे व्यग्र हैं कि कब पहुँचें उस सालवन के सेवक पुरवे में, और कब उस अद्भुत स्त्री को देखें, जिस पर त्रिलोकीनाथ महावीर अकारण ही कृपावन्त हैं । अम्बड़ का चित्त इस एक मात्र जिज्ञासा और वासना में ही संकेन्द्रित है । वे अनुक्षण यह जान लेने को आतुर हैं, कि सेवक वर्ग की एक सामान्य नारी ने, किस शक्ति के बल आत्मजयी महावीर का हृदय जीत लिया है। अपने किस सौन्दर्य की चितवन से उसने वीतराग अर्हत् के हृदय-पद्म पर ऐसा अक्षुण्ण आसन जमा लिया है ? ऐसा अचूक एकाधिकार स्थापित कर लिया है ? अम्बड़ परिव्राजक अपने जीवन की एक सर्वोपरि जीवन्त उपलब्धि को देखने जा रहे थे। उनके पैर मानो धरती पर नहीं, हवा में पड़ रहे थे । दूर पर राजगृही के हंस जैसे उजले सौध, भवन और सुरम्य उद्यान दीखने लगे हैं । रत्निम राज प्रासाद और मन्दिरों के सुवर्ण शिखर । उन पर उड़ती केशरिया ध्वजाओं की परम्परा । वैभव की इस अलकापुरी में आर्यावर्त का चक्रवर्ती सम्राट श्रेणिक रहता है। राजमाता चेलना देवी रहती हैं । समुद्र पर्यन्त पृथ्वी के हर तट पर जिनके पोत लंगर डालते हैं, ऐसे धनश्रेष्ठि रहते हैं । दिग्गज सूरी और सूरमा यहाँ निवास करते हैं । इनमें से किसी को भी सर्वज्ञ प्रभु ने याद न किया, अपना 'धर्मलाभ' न कहलाया । याद किया है किसी अनजान सारथी-पत्नी सुलसा को । केवल उसी की कुशल पूछी है । केवल उसी को भेजा है धर्मलाभ' । जिसका नाम, गाँव, घर भी राजगृही में कोई न जानता होगा। इस भव्य महानगरी की रत्न-छाया में कहाँ खोई होगी वह सुलसा ? . . अम्बड़ ऋषि सम्वेदित हो आये । वेद की अदिति, गायत्री, सावित्री उन्हें याद आने लगी। उनके तेज़ कदम जैसे पृथ्वी से हट कर पड़ रहे हैं। लेकिन वे सालवन के उस सेवक-ग्राम में जा रहे हैं, जहाँ शुद्ध पृथ्वी है। जहाँ प्रकृति स्वयं है । जहाँ माटी के घर हैं, जिनमें माटी के दीये जलते हैं। जहाँ वनस्पति मनुष्य के साथ जुड़ी हुई है। ____ अम्बड़ परिव्राजक की गति स्थिर और धीमी हो गई । वे आश्वस्त भाव से धरती पर चलने लगे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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