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'तुझे पता नहीं, सौम्य, पर तू अनायास भीतर की आभा से मण्डित है । तेरे मुख पर आर्हती मुद्रा है ।'
रोमांचन से अम्बड़ परिव्राजक सिहर आये । उनकी आँखें किसी अबूझ प्रीति से छलक आईं । श्रीभगवान उल्लसित हो आये :
'काम्पिल्यपुर में तू एक साथ सौ घरों में आहार लेता है, और सौ घरों में निवास करता है, सौम्य । और फिर भी तू एषणा से ऊपर है, और अनगार है। तू आत्मा है। तू अनिर्बन्ध है ।'
'प्रभु का अनुगृह पा कर मैं कृतकाम हुआ । कदाचित् प्रभु का प्रेम भी पा सकूँ ।'
भगवान निरुत्तर, अनुत्तर हो रहे । उनके कृपा-कटाक्ष से आँख मिलते ही अम्बड़ को लगा कि उनका शरीर उड़ा जा रहा है । वे अनंग हुए जा रहे हैं । वे थम कर ठौर पाना चाहते हैं । कहीं अपनी इयत्ता को रखना और देखना चाहते हैं ।
ठीक तभी भगवान बोले :
'राजगृही जा रहे हो, आयुष्यमान अम्बड़ परिव्राजक ?'
'परिव्राजक की प्रत्येक पथ-रेखा प्रभु के करतल में प्रकाशित है । सर्वज्ञ महावीर से क्या छुपा है ? '
'राजगृही के सालवन वर्ती सेवक ग्राम में नाग रथकार की पत्नी सुलसा रहती है । मृदु वचन से उसकी कुशल पूछना । और उसे हमारा धर्मलाभ कहना ।'
सुन कर अम्बड़ परिव्राजक आश्चर्य से स्तम्भित हो रहे । सारे समवसरण में सन्नाटा छा गया। तीनों लोकों ने सुना । तीनों कालों ने सुना। हवा, पानी, आकाश, प्रकाश भी सुन कर चौकन्ने हो रहे । सुर, असुर, मनुष्य, नाग, गन्धर्व यक्ष, किन्नर, जलचर, नभचर, थलचर सब देखते रह गये । सुनते रह गये । लोकालोक की असंख्यात जगतियों 'से, त्रिलोकपति महावीर ने नाम ले कर याद किया, केवल राजगृही की एक अकिंचन रथिक पत्नी सुलसा को ? उसका कुशल पूछा ? उसे धर्मलाभ प्रेषित किया ।
जिस महावीर के किंचित् कृपा-कटाक्ष को पाने के लिये बड़े-बड़े राजाधिराज, तपस्वी, शक्रेन्द्र और माहेन्द्र तक तरसते थे । जिनके श्रीमुख से एक-बार 'धर्मलाभ' का आशीर्वचन सुनने के लिये आर्यावर्त की सम्राज्ञियाँ, महारानियाँ, राज
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