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________________ २३२ 'तुझे पता नहीं, सौम्य, पर तू अनायास भीतर की आभा से मण्डित है । तेरे मुख पर आर्हती मुद्रा है ।' रोमांचन से अम्बड़ परिव्राजक सिहर आये । उनकी आँखें किसी अबूझ प्रीति से छलक आईं । श्रीभगवान उल्लसित हो आये : 'काम्पिल्यपुर में तू एक साथ सौ घरों में आहार लेता है, और सौ घरों में निवास करता है, सौम्य । और फिर भी तू एषणा से ऊपर है, और अनगार है। तू आत्मा है। तू अनिर्बन्ध है ।' 'प्रभु का अनुगृह पा कर मैं कृतकाम हुआ । कदाचित् प्रभु का प्रेम भी पा सकूँ ।' भगवान निरुत्तर, अनुत्तर हो रहे । उनके कृपा-कटाक्ष से आँख मिलते ही अम्बड़ को लगा कि उनका शरीर उड़ा जा रहा है । वे अनंग हुए जा रहे हैं । वे थम कर ठौर पाना चाहते हैं । कहीं अपनी इयत्ता को रखना और देखना चाहते हैं । ठीक तभी भगवान बोले : 'राजगृही जा रहे हो, आयुष्यमान अम्बड़ परिव्राजक ?' 'परिव्राजक की प्रत्येक पथ-रेखा प्रभु के करतल में प्रकाशित है । सर्वज्ञ महावीर से क्या छुपा है ? ' 'राजगृही के सालवन वर्ती सेवक ग्राम में नाग रथकार की पत्नी सुलसा रहती है । मृदु वचन से उसकी कुशल पूछना । और उसे हमारा धर्मलाभ कहना ।' सुन कर अम्बड़ परिव्राजक आश्चर्य से स्तम्भित हो रहे । सारे समवसरण में सन्नाटा छा गया। तीनों लोकों ने सुना । तीनों कालों ने सुना। हवा, पानी, आकाश, प्रकाश भी सुन कर चौकन्ने हो रहे । सुर, असुर, मनुष्य, नाग, गन्धर्व यक्ष, किन्नर, जलचर, नभचर, थलचर सब देखते रह गये । सुनते रह गये । लोकालोक की असंख्यात जगतियों 'से, त्रिलोकपति महावीर ने नाम ले कर याद किया, केवल राजगृही की एक अकिंचन रथिक पत्नी सुलसा को ? उसका कुशल पूछा ? उसे धर्मलाभ प्रेषित किया । जिस महावीर के किंचित् कृपा-कटाक्ष को पाने के लिये बड़े-बड़े राजाधिराज, तपस्वी, शक्रेन्द्र और माहेन्द्र तक तरसते थे । जिनके श्रीमुख से एक-बार 'धर्मलाभ' का आशीर्वचन सुनने के लिये आर्यावर्त की सम्राज्ञियाँ, महारानियाँ, राज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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