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________________ २३१ उन्होंने अर्हन्त महावीर की सर्वज्ञता और सर्वप्रियता के विषय में बहुत कुछ सुना। वे बहुत भावित हो आये। महावीर के स्मरण मात्र से उन्हें रोमांचन, प्रस्वेदन, अश्रुपात होने लग जाता । सो एक अदम्य आकर्षण से खिंचे वे चम्पा चले आये । रक्त-कमलासन पर देदीप्यमान प्रभु की प्रेम-मूर्ति को देख वे हिल उठे। अर्हत् के कैवल्य-तेज को सामने पाकर उन्हें ऋक्-मंत्रों और छान्दोग्य के सूत्रों का साक्षात्कार-सा हुआ। अम्बड़ स्वयम् भी मंत्र-द्रष्टा थे। उन्होंने स्वानुभव से प्रेरित हो कर अनेक मौलिक ऋचा और सूत्रों की रचना की थी। महावीर की पारदर्श देह में उन्होंने अपने उन सारे मन्त्रोच्चारों को मूर्तिमान देखा और सुना। तीन प्रदक्षिणा देकर उन्होंने प्रभु का अभिवन्दन किया, और समुम्ख हो कर निवेदन किया : 'हे नाथ, ऐसा तो कैसे कहूँ कि मैं आपके चित्त में वर्त । किन्तु आप मेरे चित्त में वर्ते तो फिर मेरे लिये अन्य किसी का प्रयोजन न रह जाये । अनेक धूर्त गुरु कोप, कृपा, तुष्टि, अनुगृह आदि के नाना अभिनय करके सरल संसारियों को छलते हैं। कहते हैं, कि हमें प्रसन्न करो और फल पाओ । लेकिन चिन्तामणि रत्न तो अचेतन होते हुए भी फल देता है । 'देख रहा हूँ, अरहत् महावीर तो निरन्तर कृपावन्त हैं, फलवन्त हैं, प्रेमवन्त हैं । वे प्रेम करते नहीं, अनुगृह करते नहीं, वह उनमें से अयाचित ही सदा प्रवाहित होता रहता है। इसी से हे वीतराग, आपकी सेवा से भी अधिक आपके आदेश का पालन कृतकृत्य करता है । 'पाया है जिनेश्वर का उपदेश । कि आत्मा के भीतर कर्म-मल का आश्रव संसार का कारण है। कि आत्म-संवरण कर उसे रोक देना, मोक्ष का कारण है। संसार दुःख है । मोक्ष सुख है । जिसमें सुख दीखे वही करो।' · · अर्हतों के इस धर्मोपदेश से अनन्त काल में अनन्त आत्माएँ तर गईं । दीनता का त्याग कर प्रसन्न चित्त से, जो केवल अर्हत् के इस आदेश पर चलता है, वह अनायास कर्म के पंजर से मुक्त हो जाता है । ' . ' दर्शन पा कर अनुगृहीत हुआ, परमात्मन् ।' और अम्बड़ परिव्राजक देव की भाँति अनिमेष दृष्टि से प्रभु के प्रेमास्पद श्रीमुख को ताकते रह गये · । अचानक उन्हें सुनाई पड़ा : । 'आत्मरूप होने के लिये अर्हत और उसके आदेश का भी अतिक्रमण कर जाना होता है, देवानुप्रिय अम्बड़ !' 'अपूर्व सुन रहा हूं, भगवन् !' 'स्वभाव का हर अगला अनुभव अपूर्व और अभिनव होता है, आयुष्यमान् ।' 'यह वाणी अनन्य है, अश्रुतपूर्व है, मौलिक है, भन्ते।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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