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________________ सर्वहारा की प्रभुता उस काल उस समय, पांचाल देश के अम्बड़ परिव्राजक पश्चिमांचल में वैदिक धर्म के एक प्रतापी नेता थे । वे भारद्वाज ऋषि-कुल की सन्तान थे । शुक्ल यजुर्वेदी शाखा के मुमुक्षु ब्राह्मण थे। राजर्षि प्रतर्दन को उन्होंने अपने ज्ञान-गुरु के रूप में पाया था। स्वभाव से ही वे अनगार संन्यासी और परिव्राजक थे । लोक में वे षडंग वेद-विद्या के पारगामी विख्यात थे । काम्पिल्यपुर के निवासी थे । नगर से दूर अतिभद्रा नदी के वनांचल में उनका एक विशाल आश्रम था । उसमें उनके सात सौ शिष्य निवास करते थे। ये सब परिव्राजक चर्या से रहते थे, और परब्रह्म की पर्युपासना करते थे । निरन्तर वेद-वेदांग के अध्ययन में संलग्न रहते थे। अंबड़ परिव्राजक काषाय वेश परिधान करते थे। त्रिदण्ड, कमण्डलु धारण करते थे। उनके गले में एकाक्षो रुद्राक्ष की माला शोभती थी। कलाई पर गणेत्रिका पहनते थे, और अनामिका उंगली में तांबे की पवित्री। किन्तु मृत्तिका पात्र, काष्ठासन, आधारी, अंकुश, कैशरिका-प्रमाजिक, छत्र, उपानह, पादुका आदि परिव्राजकों के नाना उपकरणों का परिग्रह उन्होंने त्याग दिया था। वे स्वतंत्र चेतना के व्यक्ति थे, स्वतन्त्र आत्म का अनुसरण करते थे। एक बार वे गंगा की घाटी में परिव्राजन कर रहे थे। तभी वहाँ विचरते कुछ पापित्य श्रमणों से अचानक उनकी भेंट हो गई । उनकी अनगार और अपरिग्रही जीवन-चर्या से वे बेहद प्रभावित हुए। तभी से वे चुपचाप पार्श्वनाथ के चतुर आयाम धर्म का आचरण करने लगे थे। वे बहती हुई नदी का केवल एक 'प्रस्थ' जल ग्रहण करते । अयाचित आने वाले आहार के कुछ ग्रास लेते । बिना दिया हुआ कुछ भी ग्रहण नहीं करते । अतिथि भाव से विचरते थे । चाहे जब चाहे जहाँ चल देते थे। निरन्तर परिव्राजन, अविराम यात्रा, यही उनके मन स्वतंत्र आत्मा की जीवन-चर्या हो सकती थी। उन दिनों भगवान महावीर, चम्पा के जम्बूवन चैत्य में समवसरित थे । तभी अम्बड़ परिव्राजक अपनी निरुद्देश्य पद-यात्रा में वैशाली पहुँचे थे । वहाँ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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