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'उस दिन से आज तक तुम अनवरत मेरी शिराओं के रक्त में चल रहे हो । मेरे एक-एक रक्त-कोश में हर दिन तुम्हारे सैंकड़ों समवसरणों की रचना हो रही है।
'मेरे रोम-रोम में से तुम्हारी दिव्य-ध्वनि निरन्तर झर रही है। मेरे उरुमण्डल में तुम हर सवेरे नया जन्म ले रहे हो । मेरी त्रिवली की बुनियाद पर तुम्हारे अनाहत प्रकाश के महल झूम रहे हैं।
. . . और मर्त्य मनुष्य की इस माँ को देने के लिये तुम्हारे पास कोई उत्तर नहीं है, महावीर ?
_ 'नहीं, मैं तुम्हारे समवसरण में नहीं आऊंगी, ओ त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर ! नहीं आऊँगी । नहीं आऊँगी। नहीं आऊँगी।'
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