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वह निःशेष हो गयी है, अशेष हो गयी है। उसकी कोख बोल उठी थी : 'आज मेरे बत्तीस बेटे एक साथ भगवान हो गये !'
फिर उसने सुना कि उसके घर-आंगन के विपुलाचल पर ही, इन्द्रों और माहेन्द्रों के स्वर्ग उतरे हैं। उन्होंने चरम तीर्थंकर महावीर का समवसरण रचा है । तीनों लोक और काल के सारे ऐश्वर्य वहाँ पुंजीभूत हुए हैं । और उस समवसरण की गन्धकुटी पर से त्रैलोक्येश्वर अर्हन्त महावीर कण-कण और जन-जन को सम्बोधन कर रहे हैं । हज़ारों नर-नारी प्रति दिन उनके दर्शनवन्दन को उमड़ते हैं । कितनी ही आत्माएं उनके श्रीचरणों में भवसागर को तरने का उपाय पा गयी हैं।
हाँ, अनन्त-कोटि ब्रह्माण्डनायक महावीर की पारमेश्वरी राज-सभा उसके आँगन में बिराजी है । सारा लोक उनके दर्शनों को उमड़ पड़ा है । लेकिन सुलसा न गई।
अपने पूजा-गृह को बन्द करके कई दिन वह उसी में बैठी रह गई थी। दिवा-रात्रि धूप-गन्ध से बसे उस सौम्य दीपालोकित कक्ष में घुटनों के बल एकासन में अविचल हो रही थी । मन ही मन कहती चली गई थी:
'कितना-कितना पुकारा तुम्हें, हवाओं पर, दिशाओं पर । अपनी फटती हुई छाती में से । मौत के पंजे में से । विनाश की बहिया पर से । तनु-वातवलय के तीर पर खड़े हो कर तुम्हें पुकारा, कि एक बार मेरी राह आओ । मैं जनमजनम से तुम्हारी प्रतीक्षा में छाती बिछाये बैठी हूँ। तुम यहीं कहीं आसपास से गुज़र गये होगे, सैकड़ों बार । मगर मेरे द्वार न आये । सुलसा की ज़ख़्मों से तार-तार छाती को देखने की हिम्मत तुम्हें न हुई। क्योंकि ओ अनुत्तर के योगी, सुलसा की उस वेदना का उत्तर तुम्हारे पास नहीं था। . .
___ 'फिर तुम्हारे ब्रह्माण्डीय धर्म-दरबार में मेरे आने का क्या प्रयोजन हो सकता था? क्यों आऊं आख़िर? क्या है तुम्हारे पास मुझे देने को ? और फिर लगता नहीं, कि मुझसे बाहर कहीं और तुम्हारे ईश्वरत्व का सिंहासन बिछा है। इन्द्रों और माहेन्द्रों के समवसरण में तो तुम आज आये हो । पर सुलसा की कुटिया में तो तुम तभी आ गये थे, जब तुम वैशाली के वैकुंठ-विलासी राजमहल में रहते थे। विपुलाचल के समवसरण में तो देश-काल के अनेक कूट-चक्रों का भेदन करते हुए तुम आये हो । लेकिन मेरे भीतर तो तुम अनायास एक रात मपने की परागवीथी से चुपचाप आ गये थे । • •
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