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पर वह प्रभु की खोज में नहीं गई । नहीं गई, नहीं जायेगी । तो वे स्वयम् ही मेरे द्वार पर आयेंगे ! '
.... इस बीच कितना पुकारा तुम्हें अपने पूजा-कक्ष में, एक बार भी न बोले । बरसों-बरसों कोई सुध न ली मेरी । सदा-सदा पीठ फेरे दूर-दूर जाते दिखाई पड़े हो । पीड़ा से छाती दरकने लगती है, पर कभी मुँह फेर कर तक न देखा । नीलतारा नदी तुम्हें पुकार रही है, मैं नहीं, महावीर !'
'आना चाहेंगे,
फिर ऋजुबालिका के तट पर महाश्रमण की चरम समाधि की ख़बर सुनी थी । लोक-वायका चलती थी कि महावीर जड़, अचल, शिलीभूत हो कर खड़े हैं उस नदी के कछार में । उस चट्टान पुरुष की कायोत्सर्ग मुद्रा पर नदी मातुल उत्ताल हो कर टूटती रहती है । तप के उस हिमाचल के भीतर से आँधियाँ उठकर पृथ्वी की धुरी को हिलाती हैं । सूर्य का प्रताप उसके तपस्तेज के आगे मन्द पड़ जाता है । जिन भी लोगों ने प्रभु की उस अन्तिम तपो-समाधि का दर्शन पा लिया था, वे अपने भीतर शांति का कोई गूढ़ सोता फूटता - सा अनुभव करते थे ।
पर सुलसा को यह मंजूर न हो सका, कि महावीर की उस महासमाधि nt वह देखने जाये । 'नहीं, मुझे नहीं देखनी तुम्हारी समाधि ! मुझे नहीं चाहिये तुम्हारी अचल शांति । इस संसार के कष्टों पर मेरी व्याकुलता का अन्त नहीं । हम सब यहाँ एक अन्ध भाग्य के खिलौने हैं । हमारी हर साँस में यहाँ मृत्यु छुपी बैठी है । कितना अनिश्चित, अविश्वसनीय और अन्धा है यह जीवन और अस्तित्व । बलवान सदा निर्बल की छाती पर चढ़ा बैठा है ।
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• क्यों जन्मे थे सुलसा की कोख से बत्तीस - लक्षणे, बत्तीस पुत्र ? केवल एक बलात्कारी सम्राट की रक्षार्थ कट जाने के लिये ? ...जब तक मनुष्य की इस नियति को तुम न बदल सको, तुम्हारी समाधि की शांति मुझे नहीं चाहिये । मैं सारे संसार के त्राण के लिये सन्तप्त हूँ । केवल अपनी शांति, अपने मोक्ष की मुझे चाह नहीं ? मैं माँ हूँ, महावीर ! मैं तुम्हारी महासमाधि को देखने नहीं आऊँगी । '
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और फिर एक दिन महावीर अर्हन्त केवली हो गये । उनके कैवल्य के प्रभामण्डल से लोकालोक प्रकाशित हो उठे । प्राणि मात्र के प्राण आनन्द से आप्लावित हो उठे । यह सम्वाद सुन कर सुलसा को लगा था कि उसकी रक्त-शिराओं में कोई आलोक का समुद्र उमड़ पड़ा है । एक महाज्योति के आलिंगन में
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