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गयी थी। चाहे जब लग आता, कि उसके अपने हृदय से रक्त टपक रहा है । आँचल भींज गया है।
जब भी कोई उत्कट उपसर्ग प्रभु को होता था, वह आधी रात सपनों में डर कर जाग उठती थी । सोचती थी : 'तुम ज़रूर फिर किसी संकट की खाई में कूद गये हो।' 'तुम ज़रूर फिर मृत्यु की कराल डाढ़ पर चढ़ बैठे हो।' और तब हार कर वह अपना पूजा-कक्ष खोलने को विवश हो गयी। हर उपसर्ग का वृत्तान्त सुन कर, या रात में दुःस्वप्न आने पर, वह पूजा-कक्ष में धूप-दीप करके अपने स्वामी के चेहरे की बलायें लेती । तन्तर-टोने करती, नीबू और मिर्च उतारती । कच्चे सूत में बँधी हँडिया पर अपने स्वामी की सारी अलाय-बलाय उतार देने की युक्तियाँ करती।
कभी जी बहुत ही बेकाबू हो जाता, तो राह-बाट में सब कहीं वह मन ही मन अपने प्रभु के यात्रा-पन्थ पर अपनी छाती बिछाती हुई चलती । कि 'इस पर चलो, इसे अपना पदत्राण बना लो । मेरी छाती यों नंगे पैरों से कब तक छीलोगे ?' कटपूतना के उपसर्ग को उस रात सुलसा को जाने कैसी उद्धिग्नता हो गयी थी, कि वह आधी रात बाहर निकल कर, भयंकर शीत-पाले और कोहरे में जाने कहाँ भटकती फिरी थी। तेज़ ज्वर से थर्राती लौटी थी। और कई दिन खटिया से उठ न सकी थी । उसे अपने हर कष्ट, रोग, बाधा में लगता था, कि वह सारा-कुछ अपने 'उनके लिये ही वह सह रही है। और इससे अपने दुःख में उसे एक गहरी संतृप्ति और परिपूर्ति अनुभव होती थी।
कर्णवेध के उपसर्ग के दिन उसे अचानक लगा था, कि एक के बाद एक कई तपती शलाकाओं से उसके शरीर को दाग़ा जा रहा है। फिर ऐसा दाहज्वर उठा था, कि हर पल प्राण निकलने की अनी पर ही वह कई दिन जीती रही थी। नाग रथिक अविश्रान्त चिकित्सा कराता, सेवा-उपचार में लगा रहता। उस असह्य वेदना में भी वह रथिक के शीतल लेपों और औषधि-प्रयोगों पर हँस पड़ती । कहती : 'व्यर्थ है यह सब, मेरा वैद्य कोई और ही है। उसके पास महामृत्युंजय रसायन है । वह जब आयेगा, तो पल मात्र में मेरे सारे रोग और कष्ट हर लेगा।' __ पंचशैल की तलहटियों में महीनों-महीनों भगवान ने दुर्द्धर्ष तप किया । सुलसा के आँगन में ही वे तप रहे थे । अनेकों को अचानक दर्शन हो जाता था । अनेक स्त्री-पुरुष उनकी झलक भर पाने को वैभार और गृध्रकूट के कान्तारों को छानते फिरते थे। उनकी काल-कम्पी तपश्चर्या के अनेक वृत्तान्त आये दिन सुनाई पड़ते थे । सुन कर सुलसा के स्तनों में दूध उमड़ आता था । छुपा कर आँसू पोंछ लेती थी।
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