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________________ ... २२५ 'देवी, अभय के होते तुम्हारे पुत्र बलि चढ़ गये । मेरी लज्जा का अन्त नहीं। काश, मैं आपके पुत्रों को बचा पाता । पर नहीं बचा सका । शायद बचा सकता ही नहीं । मृत्यु का तर्क समझ से बाहर है। सम्राट और सेवक दोनों के लिये वह एक ही तरह काम करता है। कर्म का विधान अटल है, कल्याणी । तीर्थकर और अवतार भी उसके अधीन होते हैं । तो हमारी क्या बिसात ?' बहुत दिनों से शान्त हो गई सुलसा, एकाएक तप आई थी : 'इस उपदेश के लिये मगध के पाटवी युवराज ने एक किंकरी के कुटीर तक आने का कष्ट किया, आभारी हूँ। किन्तु महाराजकुमार, मुझे किसी उपदेश या तीर्थंकर की ज़रूरत नहीं। मैं अपने लिये काफी हूँ। आप सर्वत्र जयवन्त हों !' कह कर सुलसा ने आँसू भींगे आँचल से अभय राजकुमार की आरती उतार ली । अभय देखते रह गये । यह स्त्री उनकी सान्त्वना से परे है । यह हमारे साम्राज्य से बाहर खड़ी है। मगध का यायावर और सर्वजयी राजपुत्र इस नारी की गरिमा देख कर पानी-पानी हो गया। दिन और रात के सफ़ेद-काले घोड़ों पर सवार हो कर, जाने कितने ही बरस काल की धारा में लीन हो गये । सुलसा की दृष्टि इस व्यतीतमान पर नहीं थी । वह सहज ही नित्य वर्तमान में जीने की अभ्यस्त हो गयी थी। जो भी सामने आता, उसे देखती थी : और देखते-देखते उससे गुज़र कर आगे बढ़ जाती थी। पर्यायी रह कर पर्याय में अविकल्प जीना उसे सुलभ हो गया था । __इन पन्द्रह वर्षों में स्थितियाँ कितनी बदल गयीं थीं। उसके 'जीवन्त स्वामी', वे वैशाली के योगी राजपुत्र गृहत्याग कर गये थे । सुन कर उसे विच्छेद का आघात भी लगा था। अपना ही घर-आँगन सूना लगा था। मन ही मन कहा था : 'तुम भी बियाबानों में खो गये? तो अब लोक में मुझे किसका सहारा रहा ?' • • ‘फिर सहसा ही वह आशा से भर आयी थी । · · 'राजमहल छोड़ कर निकल पड़े हो, तो शायद किसी दिन मेरी कुटिया के द्वार पर आ खड़े होओ ! शायद किसी दिन नीलतारा नदी के तट तुम्हारी पगचापों से रोमांचित हो उठे।' · · ·और सुलमा हर राह-बाट में प्रतीक्षा की आँखें बिछाये चलती थी। . फिर श्रमण महावीर के विकट उपसर्गों के उदन्त आये दिन सुनायी पड़ते थे । चण्डकौशिक नाग द्वारा उन्होंने अपना हृदय डॅसवा लिया सुना, तो उसे मूर्छा आ .. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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