SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२४ 'हाँ सलसा, केवल अपनी ही पूजा करो । मेरी नहीं । किसी भी भगवान की नहीं । अपनी विधाता स्वयं हो जाओ, तो मृत्यु तुम्हारी चेरी हो जायेगी।' ___.. 'उस दिन के बाद सुलसा ने एक भी आंसू न टपकाया। एक भी सिसकी न भरी । उसे अनुभव होता था, कि उसके वे देवांशी पुत्र कहीं गये नहीं हैं । उसी के भीतर लौट आये हैं। अपनी मातृ-छाती उसे भरी-भरी लगती थी। पर्याय से हट कर उसकी दृष्टि द्रव्य के ध्रुवत्व पर खुल गयी थी। इसी से वह अनायास ही वीतशोक हो गयी थी। उसे लगता था, कि वह एक हरी घास के तिनके या तितली तक की माँ हो गयी है। ___ नाग रथी बहुत समय तक भी पुत्र-शोक से उबर न पाया था। सुलसा को बोलना अच्छा न लगता । वह केवल सहला कर पति को आश्वस्त करती रहती थी। ज्ञान नहीं बोलती थी, केवल सम्वेदना से अपने आर्यपुत्र को अपनी छाती में सहेजे रखती थी। एक दिन किसी पुरानी याद से नाग रथिक की वेदना क़ाबू से बाहर हो गई। तब सुलसा से बोले बिना न रहा गया : 'तुम तो जनक हो । ऐसे दिव्य बत्तीस पुत्र तुमने मुझ में उत्पन्न किये । तो और क्या नहीं कर सकते ? मैं तुम्हारी हूँ, मुझ में अपने हर स्वप्न को रचो। सन्तान ही तो सब कुछ नहीं । और जो यहाँ उत्पन्न है, उसका विनाश है ही। और सन्तान भी किसकी हुई है ? और कौन किसी को बचा सका है ? जब हमारे शरीर ही अपने नहीं। स्वयम् नारायण कृष्ण जिस अभिमन्यु के मामा थे, वह कुटिल कौरवों के चक्रव्यूह का आखेट हो गया। क्यों स्वयम् भगवान कृष्ण उसे बचा न सके ? उसे जिला न सके ? और वे कृष्ण क्या अपने ही को व्याध के तीर से बचा सके ? भाई-भाई आपस में लड़ मरे, और कुरुवंश का मूलोच्छेद हो गया। सौ पुत्रों के पिता धृतराष्ट्र को पुत्र-वियोग के सिवाय और क्या मिला? 'सन्तान हो कि कोई हो, अपनी मौत का क्षण हम साथ लाये हैं, जो टल नहीं सकता। ईश्वरों ने भी ठीक समय आने पर मृत्यु का वरण किया है। .. 'लेकिन सुनो आर्यपुत्र, कुछ भी तो कहीं जाता नहीं । माओ यहाँ, देखो, ये रहे तुम्हारे बत्तीसों पुत्र ! . . . ' और सुलसा ने असीम मार्दव के साथ, पति को छाती से चाँप लिया । एक दिन राजमहालय से अभय राजकुमार शोक-सान्त्वन को आये थे। बड़ी देर तक चुप बैठे सन्तप्त माता-पिता को देखते रहे थे। फिर भारी स्वर में बोले थे : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy