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राज किया है ? या अपने ही लिये किया ? तुम तो सच बोलो, महावीर ! किसके लिये कट गये मेरे बत्तीस मासूम छौने ?'
चित्रपट में से उत्तर सुनाई पड़ा :
'अपने लिये, अपनी आत्मा के लिये। अपने स्वधर्म के पालन के लिये । अपने क्षात्र-व्रत की आन के लिये । ..'
बिजली की तरह तड़प कर जैसे सुलसा ने कहा : 'सारथी-पुत्र और क्षत्रिय ? मेरा अपमान मत करो । चुप रहो . ।'
'क्षत्रिय आत्मा से होता है, वंश से नहीं होता, सलसा । तेरे बेटे राजवंशी नहीं, आत्मवंशी परित्राता थे । वे हजारों के विरुद्ध केवल एक अकेले व्यक्ति
की प्राण-रक्षा के लिये लड़े । अपने वीरत्व के लिये हवन हो गये । वे अपने ही लिये हुतात्मा हुए, किसी सम्राट के लिये नहीं । और जो अपने ही लिये अपनी आहुती देता है, वही सच्चा प्रजापति होता है । ऐसे अनपहचाने विष्णुओं की जगत में कमी नहीं, सुलसा । पर उनका नाम इतिहास में नहीं लिखा जाता । वह शाश्वत मनुष्य की नाड़ियों में व्याप जाता है।'
'एक माँ को उत्तर नहीं दिया तुमने, महावीर? मेरे हृदय के टुकड़े मुझसे छीन लिये गये, और तुम बचत निकाल रहे हो ? तुम क्यों कुछ न कर सके ? सुनती हूँ, मृत्यु से खेलते हो। तो मेरे बच्चों को उससे छीन कर क्यों न ला सके ?' ___'हर आत्मा स्वयं ही अपने जीवन और मरण का विधाता है, सुलसा । अपने ही राग-द्वेषों से वह अपना भाग्य रचता है। अपने किये का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं । कर्म के इस अटल नियम-विधान में कोई भगवान या तीर्थंकर हस्तक्षेप नहीं कर सकता । तेरे बत्तीस पुत्र अपनी मौत मरे, कोई श्रेणिक उन्हें कटवा नहीं सकता था, कोई वैशालक उन्हें काट नहीं सकता था। · · फिर भी उन्हें काटा और कटवाया गया है, यह भी अपनी जगह उतना ही सत्य है । शोषक सम्राट और हत्यारे वैशालिक को परम न्याय क्षमा नहीं करेगा। निर्णायक वही है, मैं नहीं !" ___तो तुम जाओ, मुझे ऐसे भगवान की ज़रूरत नहीं है। तुम सत्य और न्याय के निर्णय तक से बचते हो ?'
· · ·और उस दिन जो अपने पूजा-कक्ष के किंवाड़ सुलसा ने बन्द कर दिये, तो फिर खुल न सके । · · ·अब और किसी को वह नहीं पूजेगी। अपने ही को पूजेगी। · · ·और हठात् उसे अपने भीतर सुनाई पड़ा था :
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