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तुम पर उसका कोई असर न पड़ा ? एक दिन कृपावन्त हो कर दायें हाथ से जो अपनी इस दासी को तुमने दिया था, उसे आज अकारण बायें हाथ से छीन लिया ? तुम हमारे जीवनों के साथ खेलते हो ? तुम कैसे भगवान ? तुम कैसे मेरे आर्यपुत्र ?
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सुलसा का गला रुँध आया । वह प्रभु की उस लीलायित त्रिभंगी मुद्रा को एक टक निहारती रही । फिर अनबोले ही कहती गयी :
'फूल से भी कोमल तुम इतने कठोर और कराल भी हो सकते हो ? आख़िर तो विश्व की सिरमौर नगरी वैशाली के देवांशी राजपुत्र हो । श्रेणिक हो कि वर्द्धमान हो, वही एक राजवंशी रक्त है न ? क्यां अन्तर पड़ता है ! राजा की जात सर्वत्र वही है । सारे इतिहास में । और उस इतिहास में सारथी सदा सारथी रहता आया है । उसके पुत्रों की हत्या पर तुम अपने समत्व के योगासन पर चुप्पी साध ही सकते हो !
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'तुम ठीक भगवान की तरह चोरी-चोरी बन्द दर्वाज़ों के भीतर ही, मेरे पास आये । मेरे सपने की राह मेरे हृदय में आसन जमा बैठे, तो हटने का नाम न लिया । ... मैंने तो तुम्हें अपना वल्लभ और स्वामी जाना था । वही पाया भी था । आज पता चला कि तुम आख़िर तो भगवानों के वंशज, पाषाण के प्रभु हो । और सारे प्रभुओं ने हमारे कष्टों पर केवल करुणा का जल छिड़का है, पर उन्हें वे हर न सके । मेरे कलेजे के बत्तीस टुकड़े एक साथ चिता पर चढ़
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गये । और तुम सिर्फ वीतराग मुस्कान के साथ चुपचाप यह सारा दृश्य देख रहे हो ? परित्राता हो कर भी कुछ न किया । कुछ कर न सके !
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सुलसा बिसूरने लगी । कि हठात् 'जीवन्त स्वामी' के वे चित्रित ओंठ हिले । सुनाई पड़ा :
'हाँ सुलसा, कुछ न कर सका, कुछ कर नहीं सकता । तुम भी कुछ न कर सकी, कर नहीं सकती । अपने ही शरीर के टुकड़ों को, उनकी जनेता और धात्री न बचा सकी, तो कोई भगवान उससे बढ़ कर क्या कर सकता है ? मनुष्य की माँ के आगे हर भगवान छोटा पड़ जाता है ।'
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'तुम्हारी इन व्यंग्योक्तियों को मैं क्या समझू ? सर्वशक्तिमान सुनती रही हूँ भगवान को । और तुम कहते हो, कुछ नहीं कर सकते, तो मैं तुम्हारा क्या करूँ ? क्या तुम कोई न्याय भी नहीं कर सकते ? इतने तटस्थ कि अन्याय को भी स्वीकारते हो । बोलो, किस लिये कट गये मेरे बत्तीस बेटे ? प्रजा और उसके प्रतिपालक की रक्षा के लिये ? या साम्राज्य और सम्राट की रक्षा के लिये ? या तुम्हारी सम्राज्ञी मौसी चेलना का गान्धर्व-परिणय रचाने के लिये ? क्या पृथ्वी पर कभी इस सत्ताधीश और राजा की जात ने प्रजा- पालन के लिये
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