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________________ २२१ · नाग रथिक के आँगन में उसके बत्तीस तेजोमान पुत्रों के शव, चीनांशुकों, फूलमालाओं, मणि - मुक्ताओं से सज्जित कर पंक्तिबद्ध बिछा दिये गये । अन्तिम दर्शन के लिये । मगध के वीरगति प्राप्त नरसिंहों को राजकीय सम्मान दिया जा रहा था । बाहर वाजिन्त्रों में शोक का करुण गंभीर, प्रच्छन्न संगीत बज रहा था । हज़ारों नागरिक उनके अन्तिम दर्शन को वहाँ एकत्रित थे । सब ज़ार-ज़ार रो रहे थे । पर सुलसा की आँख में आँसू नहीं था । वह स्तब्ध, अनाविल आकाश की तरह केवल देख रही थी । केवल देख रही थी, और समझ रही थी । केवल वस्तु-स्थिति की साक्षी दे रही थी । • कि अचानक वह चीख़ कर, जहाँ खड़ी थी वहीं हतचेत हो कर गिर पड़ी । और जाने कितने सर्वहारा दीन-दलित बुक्का फाड़ कर रो उठे । और थोड़ी ही देर बाद एक विशाल शवयात्रा राजसी तामझाम के साथ सालवन के उस पुरवे से स्मशान की ओर चल पड़ी । साम्राज्य और सम्राट की रक्षा के लिये, अन्तिम साँस तक जूझते हुए बलि हो जाने वाले मगध के वीरों को साम्राजी सम्मानपूर्वक अन्त्येष्टी के लिये ले जाया जा रहा था ! इधर राजगृही के राजमहालय में सम्राट श्रेणिक चेलना के साथ अपने गान्धर्व-परिणय का उत्सव रचा रहे थे । सारा नगर तोरण-पताकाओं से रंगीन हो उठा था । नाच-गान, सुरापान में मागध प्रमत्त हो रहे थे । उत्सवी वाद्यों की उल्लास भरी तानों से दिशाएँ पुलक उठी थीं । और उधर राजगृही के 'तमसावन' स्मशान में, सुलसा के हुतात्मा बेटों की चिताएँ धधक रही थीं । शोक-वाजिन्त्रों की रुदन्ती ध्वनियाँ आकाश के पटल चीर रही थीं । पूर्वीय समुद्रेश्वर श्रेणिक के चक्रवर्ती साम्राज्य में, जहाँ राज्य और प्रजा के संरक्षण के नाम आये दिन हज़ारों मनुष्य कटते रहते थे, वहाँ एक अदना सारथी के बत्तीस पुत्रों के जीवन या मरण का क्या मूल्य हो सकता था ? 'सुलसा अपने पूजा-गृह में बन्द हो कर, अपने 'जीवन्त - स्वामी' प्रभु के सम्मुख जानुओं के बल बैठी थी । नाग सारथी निपट शरणार्थी बालक की तरह उसकी गोद में सर ढाले लेटा था । दीपालोक में प्रभु की वह मुख-मुद्रा निश्चल दीखी । निस्पन्द और स्तंभित । अटल और अप्रभावित । पर उनके ओठों पर समत्व की एक मुस्कान खिली थी । मन ही मन सुलसा ने आवेदन किया : 'तुम मेरे कैसे प्रभु ? इतने कठोर, इतने निर्मम, कि मुस्कुरा भर दिये हो ! एक माँ पर होने वाले इस वज्रपात से तुम्हारा कोई सरोकार नहीं ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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