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________________ और प्रवाही थे। कोई मानवीय मानापमान उनकी चेतना तक पहुँचता ही नहीं था । वे तो हर दिन कोई नया पराक्रम करने को मचलते रहते थे। राजाज्ञा होने पर वे सैनिक वेश में सज्ज हो कर, बेधड़क भीषण और भयानक में कूद पड़ते थे । मगध के सीमान्त उनके शूरातन और प्रताप से अधिक सुरक्षित हो गये थे। मगर सम्राट, साम्राज्य और राजपुत्रों से उनका कुछ लेनादेना नहीं था । वे उनके लिये मानो अस्तित्व में ही नहीं थे । वे पराक्रम करते थे, केवल अपने बल को आजमाने के लिये। वे युद्ध करते थे केवल, अपने से अधिक बली किसी योद्धा का पता पाने को। उनके लिये यह सब खेल था। और यह खेल ही उनका जीवन था । · · ·तभी एक असाधारण घटना घटी। जब अभयकुमार चेलना का हरण कर लाये, तो लिच्छवियों के क्रोध का पार न रहा। लिच्छवियों की एक गुप्त वाहिनी सुरंग की राह चुपचाप मगध के महलों में पहुँच कर, चेलना को लौटा लाने के लिये चल पड़ी। सीमान्त प्रदेश में सिंहों की तरह विचरते सुलसा-कुमारों को सहज-ज्ञान से पता चल गया कि भूगर्भ में कुछ हलचल है । उन्होंने ठीक जगह पर कुदाली मारी। भीतर से प्रतिरोध आया, और एक सूराख में से कोलाहल सुनाई पड़ा : ‘मागध, मागध, मागध आ गये, आ गये, सावधान !' ___ सारथी-पुत्रों ने तुरन्त अपने खोदे गड्ढे में माटी डाल कर, उसे पाट दिया। और उन्होंने तत्काल सम्राट को सूचना दी। युद्ध-प्रेमी सम्राट स्वयम् ही एक वाहिनी ले कर दौड़े आये । नाग रथी उनके रथ का सारथ्य कर रहा था । सम्राट का रथ मोखरे पर आ लगा । रथी-पुत्रों ने विपल मात्र में सुरंग तोड़ दी। सैकड़ों लिच्छवि सुरंग के मुहाने पर चढ़ कर, तीरों से मुक़ाबिला करने लगे। सम्राट अपनी वाहिनी के साथ अप्रतिहत शौर्य से प्रतिरोध देते रहे। नाग रथी का शरीर तीरों की बौछार से छिदा जा रहा था । पर वह था कि सम्राट के 'अजितंजय' रथ को अपराजेय शक्ति के साथ, सुरंग के मुहाने पर अड़ाये रहा । और अपने अश्वों की टापों से लिच्छवियों के मस्तक भंजन करवाता रहा। कि हठात विस्फोट का भूकम्पी धमाका हुआ। और हज़ारों लिच्छवी मगध की भूमि पर ख नी युद्ध खेलने लगे । ठीक तभी सारथी-कुमारों ने सम्राट के रथ को चारों ओर से घेर लिया, और श्रेणिक तथा मगध-साम्राज्य की रक्षा के लिये वे मरणान्तक युद्ध में जूझने लगे। इस बीच जाने कब मागधी वाहिनी भाग खड़ी हुई थी। और सहस्रों लिच्छवियों को केवल उन बत्तीस योद्धाओं ने कई घण्टों तक नाकों चने चबवाये। लेकिन, अवधि आ गयी उन मानवी के जायों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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