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कुछ है । अन्त कहीं नहीं है। असंख्य परोक्ष जगतियाँ हमारे आसपास के अवकाश में मौजूद हैं, जिन्हें हम अपने सीमित चक्षु से देख नहीं पाते । आगे और नहीं है, इसका किसी के पास क्या प्रमाण है ? · · सुलसा के चित्त में उस घटना से दर्शन
और ज्ञान के नये वातायन खुल गये हैं। वह एक गहन आश्वस्ति अनुभव करती है। इस अनन्त में मृत्यु तो उसे कहीं दिखायी नहीं पड़ती।
गर्भकाल पूरा होने पर, सुलसा ने शुभ दिन और शुभ लग्न में, एक साथ बत्तीस लक्षणों वाले बत्तीस पुत्रों को जन्म दिया। जैसे अचानक एक सुबह मधुमालती लता में अनगिनत फूल फूटे हों।
धात्रियों की सहायता से लालित वे बालक, विन्ध्यगिरि में जैसे हाथी के बच्चे अखण्ड मनोरथ रह कर पलते और बड़े होते हैं, वैसे ही पर्वरिश पाने लगे । उनकी बाढ़ असाधारण थी । सामान्य बालकों से कहीं बहुत अधिक । पूनम के समुद्र ज्वारों की तरह वे तेज़ी से बड़े होने लगे । किशोर वय में ही. वे तेजस्वी, बलवान तरुणों की तरह दीखने लगे थे ।
• वे देवांशी थे, और उनके सौन्दर्य और शूरातन की लोक में कहानियां चल पड़ी थीं । पिता नाग रथिक मोह वश हर समय उन्हें घेरे रहते थे। पर पिता और माँ की स्नेह-चिन्ता की अवगणना कर वे सदा संकटों से खेलते रहते थे। उनके वीरत्व और तेज से मगध के राजपुत्र भी उनकी ओर आकृष्ट हुए । राज-सेवक के पराक्रमी पुत्रों को साम्राजी महलों का आमंत्रण मिला । पर वे उत्सुक नहीं दीखे ।
पिता की आज्ञा का पालन करने को, वे कर्त्तव्य वश राजगृही के महालय में गये। वहाँ के ऐश्वर्य और प्रताप का उन पर कोई प्रभाव न पड़ा । मानो कि वे किसी ऐसे वैभव-लोक में से आये हैं, जिसके सामने धरती के सारे ऐश्वर्य पानी भरते हैं। · · · उनके अपने ही शरीर बत्तीस लक्षणों से दीपित हैं । और उन्हें लगता है, कि वे किसी अपार्थिक सत्ता के उत्तराधिकारी हैं। ___ मगध के वैभव में आलोटते, इतराते राज-दुलारों ने सुलसा के पुत्रों के साथ स्वामित्व का ही व्यवहार किया । प्रभु और सेवक की दूरी अक्षुण्ण थी, और इन सारथी-कुमारों को मानो अवसर दिया गया था कि वे सम्राट और साम्राज्य की सेवा में अपने को अर्पित करके अपना जीवन कृतार्थ करें।
लेकिन सुलसा के जाये अप्रभावित, अनत ही लौट आये। उनमें कोई प्रतिक्रिया भी न हुई । वे हर पल ऊर्जा से छलकते रहते थे। पारे की तरह चंचल
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