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'और देवी सुलसा, मैं उद्विग्न हो उठा। देवलोकों की प्रभा को अपने तेज से मन्द कर दे, ऐसी वह मर्त्य मानवी कौन है ? देखू उसके धर्य को। • • • और मैं उद्धत मुलसा की परीक्षा लेने चला आया। · · · पर धन्य हो गया, महादेवी । मैंने देखा कि भगवती आत्मा देवत्व से भी ऊपर है । और वह पृथ्वी की मर्त्य माटी में ही देह धारण करती है। ताकि अमरत्व प्रमाणित हो सके ।' ___ 'देवानुप्रिय ईशान कुमार, आपकी अतिशय कृतज्ञ हूँ। प्रमाण तो आपके पास है, मैं क्या जानूं !'
'मैं यहाँ सेवा-नियुक्त हूँ, दवी। मैं सती का क्या प्रिय कर सकता हूँ ?' 'आप एक किंकरी के द्वार पर आये, यही क्या कम प्रिय किया आपने ?'
'देवी की गोद सूनी है। आँगन उदास है । यह गोद भर जाये, यह आँगन चहक उठे । यही करने आया हूँ।'
'आर्यपुत्र नाग रथी की साध पूरी करें। वे पाड़ित हैं। उनकी गोद भर देना चाहती हूँ।' _ 'तथास्तु, महासती । वही होगा।' __ और ईशान कुमार देव ने अपने मणिजटित कमर-पट्ट में से स्फटिक की एक छोटी-सी कुम्भिका निकाली। उसमें सुनहली गुटिकाएँ चमक रही थीं । वह दोनों हाथों से सुलसा को अर्पित करते हुए उसने कहा : ____ 'इसमें ये बत्तीस गुटिकाएँ हैं । ये हिरण्य-बीज हैं । अनुक्रम से देवी इनका सेवन करें। हर गुटिका से देवी की गोद एक बत्तीस लक्षणे बालक से भर जायेगी। क्रमशः जितनी गुटिकाएँ हैं, उतने बत्तीस लक्षणे पुत्र इस आँगन में खेलेंगे । जब भी मेरा प्रयोजन हो, मुझे स्मरण करें। सेवा में प्रस्तुत हूँगा।'
और विपल मात्र में ईशान कुमार अन्तर्धान हो गया।
सुलसा ने अपने पूजा-गृह के एकान्त में विचार किया : अनुक्रम से सारी गुटिकाएँ खाऊँगी तो अनेक बालक जन्मेंगे। उस अशुचि में क्यों पड़े। एक साथ सब गुटिकाएँ खा जाऊँ, तो एक ही सर्वलक्षण मंडित पुत्र जनूं, और आर्यपुत्र की साध पूरी कर दूं । केवल एक पुत्र हो ! केवल एकमेव । पूर्ण मनुष्य । ___ और सुलसा अपने 'जीवंत स्वामी' का वन्दन कर, वे बत्तीसों गुटिकाएँ एक साथ निगल गई।
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