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________________ २१५ कि तभी अचानक 'धर्मलाभ !' कहता हुआ एक साधु उसके सामने आ खड़ा हुआ । सुलसा भक्तिभाव से द्रवित हो गई । उसने नमित हो कर मुनि को वन्दना की और बोली : 'क्या सेवा कर सकती हूँ, हे अतिथि महाभाग ? ' 'किसी वैद्य ने मुझे बताया है. देवी, कि तुम्हारे घर में लक्षपाक तेल है । वह अनेक रोगों की रामबाण रसायन औषधि है । एक ग्लान साधु के लिये उसकी आवश्यकता है । उसी उनकी प्राण-रक्षा हो सकती है ।' 'मेरे लक्षपाक तेल को कृतार्थ करें, भन्ते श्रमण । मैं अभी लाई ।' गयी । ले कर आ रही थी, । कह कर वह हर्षित होती तेल का कुम्भ लेने कि हठात् जैसे किसी ने झपट्टा मार कर वह कुम्भ गिरा दिया । महामूल्य तेल धरती पर बिखर गया । सुलसा चुप, अक्षुब्ध देखती रह गयी । फिर घर में दौड़ी, दूसरा कुम्भ लाने को । फिर उसी तरह जैसे अन्तरिक्ष में से किसी ने वह तेल-कुम्भ झटक कर गिरा दिया। सुलसा की आँखों में चक्कर- सा आ गया। वह सम्हली, और स्थिर निश्चल इस अघट दुर्घट को देखती रही। उसने हार न मानी, वह फिर तेल का तीसरा कुम्भ लेने गई : और फिर उसी दुर्घटना की पुनरावृत्ति हुई । सुलसा क्षुब्ध होने के बजाय, अनुकम्पा से कातर हो कर रो आई । 'हाय मैं कैसी हत - पुण्या हूँ, कि द्वार पर भिक्षुक याचना में हाथ फैलाए खड़े हैं । मेरे घर में यह दुर्लभ चिन्तामणि तेल है । फिर भी श्रमण की याचना निष्फल हो रही है । सचमुच हीं मैं वन्ध्या हूँ ।' वह साधु की ओर दौड़ी। उनके चरणों में गिर कर क्षमा-याचना करनी चाही । पर यह क्या, वहाँ साधु नहीं, एक देव खड़ा था ! सुलसा आश्चर्य से स्तब्ध उसे ताकती रह गई । देव प्रणत हो गया और बोला : 'नहीं, तुम वन्ध्या नहीं हो, देवो । के आसन की तरह अटल है । और उनकी परदुख-कातरता लोक में अनुपम है । मैं उनके सती सुलसा की तितिक्षा, अर्हन्त अनुकम्पा का पार नहीं । उनकी दर्शन पाकर धन्य हुआ ।' Jain Educationa International 'महानुभाव देव, आपके अनुगृह के योग्य हो सकी, यह मेरी कम धन्यता नहीं ।' 'मैं ईशान स्वर्ग से आया हूँ । देवसभा में शक्रेन्द्र ने एक दिन कहा : राजगृही में नाग सारथी की पत्नी सुलसा ने अपनी दिव्यता से, स्वर्गों के तेज को मन्द कर दिया है। सारे देवलोक और मनुज लोक में अतुल्य है उसका तपोतेज । वह तितिक्षा का हिमाचल है । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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