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में कितनी सारी रानियाँ हैं, कितनी सारी प्रियाएँ हैं। किन्तु महाराज में विसी ने दोष तो देखा नहीं !'
'पर सम्राट श्रेणिक के अन्तःपुर में सुलसा नहीं है, जिस पर उनकी सारी रानियों को वार सकता हूँ। तुम एक नहीं सुलसा, अनगिनती रानियाँ हो मेरी । मेरे हर मन चाहे रूप और भंग में तुम मुझे मिली हो । · · · सम्राट बिंबिसार, काश, चेलना को पहचान पाते !'
'सम्राज्ञी चेलना तो उनकी कौस्तुभ-मणि है ही।'
'फिर भी वे काँच-खण्डों में रुलते रहते हैं । . . और फिर वे सम्राट हैं, मैं ठहरा एक तुच्छ सारथी। सम्राट के अनेक पत्नियाँ भले ही हों, सारथी के एक ही पत्नी हो सकती है।'
'मुझ जैसी एक शंखिनी वन्ध्या, जो तुम्हारी गोद न भर सकी !'
'सुलसा, मुझे और नीचे न गिराओ। मुझे अपने योग्य बनाओ, कि इस क्षुद्र पार्थिव कांक्षा से ऊपर उठ सकू । मुझे तुम लेती हो, और अपने को देती हो, यह क्या कम दिव्य घटना है ?' _. 'तो सुनो, पूजा-गृह में जो कौतुकी त्रिभंगी मुद्रा में बैठा है, उसे ही अपना बेटा हम क्यों न बना लें ?'
'कहाँ हम साधारण राज-रथिक, और कहाँ वह वैशाली का देवर्षि राजपुत्र ! पृथ्वी के महारथियों का भी महारथी। वैसा भाग्य हमारा कहाँ, सुलसा ?'
'मूर्त स्थूल ही तो सब कुछ नहीं, देवता । भाव में आओ मेरे पास, और मेरी गोद में सो कर स्वयं वह हो जाओ।' ।
नागदेव एक गंभीर रोमांचन से काँप-काँप आया । आविष्ट-सा वह सुलसा की गोद में ढलक आया। वह निरा बालक हो गया। . . और उसने अपने ही उस बाल रूप को कोली भरना और चूम-चूम-लेना चाहा । पर किसी आँचल की छाँव में, एक महाचुम्बन तले वह असम्प्रज्ञात चेतना में डूबता चला गया। और सुलसा को लगा कि उसके पूजा-गह का वासी देवता, उसके अंगांगों में समुद्र की तरह उमड़ा चला आ रहा है।
एक दिन अचानक एक विचित्र घटना घटी । नव मल्लिका की तरह विकसित सुलसा अपने पूजा-गृह से बाहर आई । कुसुम्बी परिधान में वह प्रातः काल की सन्ध्या जैसी, भवन द्वार में आ खड़ी हुई ।
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