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________________ २१३ कैसे इसमें सन्तान उत्पन्न करे? क्यों न कर सका अब तक ? आह काश, इस कल्याणी के भीतर वह नवजन्म पा सकता, पिण्ड धारण कर सकता । कैसे वह इसके दिव्य सौन्दर्य में अपने को प्रतिमूर्त और शिल्पित कर सकता है ? स्थायित्व दे सकता है ? इसी वेदना से वह सदा विदग्ध होता रहता था । सुलसा मन ही मन पति की इस निगढ़ मनोवेदना को समझती रही है। उसी के भीतर बस कर, उसे सहती रही है । उसकी सहभागिनी होती रही है । नाग ने प्रायः सुलसा की उस मनोवेधक व्यथित दृष्टि को देखा है । और वह अपनी पीड़ा में और भी गहरे डूब कर चुप्पी साधे रहा है। आखिर असह्य हो गई सुलसा को, उनके बीच महिनों से गहराती यह चुप्पी। एक दिन सन्ध्या समय नाग रथिक 'नीलतारा' के तटवर्ती एक शिलाखण्ड पर एकाकी बैठा था । मानो नदी को अपनी मनोव्यथा सुना रहा था। तभी चुपचाप दबे परों सुलसा वहाँ पहुँच गई। पीछे से कन्धों पर हाथ रख स्नेहकातर स्वर में बोली : ___ 'जानती हूँ तुम्हारी पीड़ा को । मैं कैसी अभागिन हूँ, एक सन्तान तक तुम्हें न दे सकी। मुझ वन्ध्या की राह कब तक देखोगे ?' नाग रथिक ने हाथ उठा कर, सुलसा के बोलते ओठों को दबा दिया : 'मुझे इतना पामर समझती हो?' 'पामर नहीं, परम पुरुष समझती हूँ । और तुम्हारे पौरुष के योग्य अपने को नहीं पाती । तुम्हारे तेज को मूर्त न कर सकी मैं हतभागिनी, अपने रक्तमांस में । इसका संताप मन में कम नहीं है।' 'चुप करो, सुलसा, चुप करो । मुझे अपने योग्य रहने दो...।' और फिर उसने सुलसा के ओठों पर अपनी उँगलियाँ दाब दी । 'नहीं, मुझे आज बोल लेने दो। बहुत दिन धीरज रक्खा । तुम्हारी व्यथा मुझ से सही नहीं जाती । सुनो, अनेक सुन्दरी स्त्रियों से विवाह करो, और उनमें सन्तान उत्पन्न कर अपने पौरुष को सार्थक करो।' __'ऐसा तुम सोच भी कैसे सकी, सलसा ? नाग सारथी की अंगना एक ही हो सकती है । तुम से बढ़ कर पृथ्वी पर कुछ नहीं । ऐसे सौन्दर्य को पा कर मैं व्यभिचारी नहीं हो सकता, देवी ।' 'इसमें व्यभिचार की क्या बात है। आदिकाल से पुरुष बहु स्त्रीगामी होता आया है । प्रकृति में पुरुष इसी तरह बना है । सम्राट श्रेणिक के अन्तःपुरों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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