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________________ २१२ बसा हुआ था। उसी में उसने भी अपना एक अत्यन्त सुन्दर कलात्मक कुटीर बना रक्खा था। निकट में ही उसकी रथशाला थी, जहाँ वह केवल रथों का संरक्षण ही नहीं करता, बल्कि उनके शिल्प, वास्तु और रचना में भी नये-नये आविष्कार करता रहता था। अनेक राजकीय वद्धिक और कम्मार उसकी कम्मशाला में काम करते थे। पर उसने अपने को एक साधारण सारथी से अधिक कभी नहीं माना। कुछ ही दूर पर 'नीलतारा' नदी बहती थी। उसके कई एकान्त और निभृत प्रदेशों से वह परिचित था । अवकाश के समय वहीं जा कर, वह घड़ियों, पहरों नदी की धारा को ताकता, जाने क्या सोचता रहता था। उसके मन में एक पुकार-सी उठती: 'क्या वे जीवन्त स्वामी, कभी इस नदी की राह हमारे घर आयेंगे?' और जो उत्तर उसे मिलता, उससे वह मुदित, मगन, मौन हो रहता था। सुलसा के पूजा-गृह की बात को, तथा अज्ञात में से आते इन उत्तरों को वे दोनों ही दम्पत्ति अत्यन्त गोपन रखते थे। परस्पर तक भी उसकी बात कभी न करते। · · · इधर कई दिनों से नाग रथिक बहुत उदास लगता था। उसका आँगन सूना था। यह बात उसके हृदय को सदा सालती रहती थी। पड़ोस के सुन्दर बच्चों को जब वह अनेक चंचल क्रीड़ाएँ करते देखता, तो मुग्ध हो कर उन्हें कोली भर लेता । उन्हें बहुत प्यार-दुलार करता । उसकी छाती में सिसकियाँ उठ-उठ आती थीं। वह आहे दबा लेता था। उसकी आँखें भर आती थीं। इधर सुलसा में एक अपूर्व लावण्य का ओप प्रकट हआ था। इतनी सुन्दर तो वह पहले कभी नहीं लगी थी। सबेरे जब पूजा-गृह से निकल कर आती, तो नाग को सचोट अनुभव होता कि, यह मांस-माटी की सामान्य नारी नहीं है । किसी परपार की अपार्थिव आभा से वह मानो वलयित दिखायी पड़ती थी। उसकी आँखों में असंख्यात द्वीप-समुद्रों की दूरियाँ झाँकती थीं। उसके चेहरे पर एक अचल शांति, दीप्ति और आश्वस्ति बिराजती थी। उसे देखते ही नाग रथिक जाने कैसे विद्युत् के वेग से भर उठता था। उसकी चितवन के निमंत्रण को सहना उसे कठिन हो जाता था। यह मुझे किन अगम्यों में खींच ले जाना चाहती है?'- वह मन ही आक्रन्द कर उठता । हर रात उसके बाहुबन्ध में आ कर भी यह सुलसा कितनी अस्पृष्ट, और हर पकड़ से बाहर है । इस महिमा को कौन सा 'बाहुबन्ध' अपने में समेट सकता है ? और नाग रथिक की उदासी और भी अधिक बढ़ जाती। कैसे वह इस महीयसी की कोख तक पहुंच सकता है? पहोंच के पार है मानो इसका गर्भ! तो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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