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में जब सम्राट के प्राण खतरे में पड़ें हैं, तो नाग उन्हें अँधियारी खन्दक के किनारे से उबार लाया है । ऐसे ही एक अवसर पर सम्राट ने उससे कहा था :
'भणे नाग, तू मेरे विजेता की आँख है । जैसे संजय सारथी अन्धे कौरव सम्राट धृतराष्ट्र की आँख था। जैसे संजय ने हस्तिानापुर के राज-सिंहासन पर बैठे-बैठे ही धृतराष्ट्र को पूरा महाभारत का युद्ध दिखा दिया था, वैसे ही तू मेरे सारे रण-क्षेत्रों को मेरी हथेली की रेखाओं में दिखा देता है। तिस पर तूने तो मुझे कौरवराज की अधो-गति के संकट से भी बार-बार उबार लिया है । तू केवल रथिक नहीं नाग, तू मेरा संरक्षक और युद्ध-मंत्री भी है। . . . '
उत्तर में नाग ने इतना ही कहा था :
'मैं तो अपना कर्त्तव्य मात्र कर रहा हूँ, महाराज । शेष तो सब आपके बाहुबल और पुण्य का ही प्रताप है।' ____ और श्रेणिक उस साधारण सेवक की महिमा को देख कर मन ही मन विनत हो गया था।
मृत्यु के मुख में से तुरत लौटे सम्राट के मुख से सुनी यह बात नाग रथिक कभी भूलता नहीं था। पर उसे कभी कोई अभिमान न हुआ । वह केवल सारथी ही नहीं था। सांगोपांग रथ-विद्या और सारथ्य-कला का वह निष्णात था। वह रथ का एक विचक्षण वास्तुकार और शिल्पी भी था। यंत्र, मंत्र, तंत्र विद्या का भी वह दुर्लभ जानकार था। उसने एक महारथी गुरु से ज्योतिर्विद्या भी सीखी थी। ग्रह-नक्षत्रों की गति-विधियों को वह हस्तामलक वत् पढ़ता और समझता था । उसे सहज ऋतु-बोध भी था। आगामी ऋतु-संकट, वर्षा-तूफ़ान, शीत-झंझाओं की उसे आगाही हो जाती थी। अड़ाबीड़, पथहीन जंगलों में भी ग्रह-तारों की स्थितियों से वह सही मार्ग का पता पा लेता था। ___ और अपनी इन सारी विद्याओं, विज्ञानों, कलाओं का उसे कोई मान-गुमान ही नहीं था। इन विद्याओं से आगे भी क्या कोई विद्या है ? इसकी जिज्ञासा और संचेतना उसे सदा बनी रहती थी। भूगोल और खगोल की राहों से परे भी क्या कहीं कोई महापंथ है? वह अपनी हर दुर्गम यात्रा में अनजाने ही उस पंथ को टोहता रहता था।
इस सब के बावजूद आख़िर तो वह सम्राट का एक आज्ञा-पालक और साधारण सेवक था। दिशाएँ उसके भाल पर खुलती थीं, फिर भी वह भाल एक सम्राट के आगे आदेश पाने को नत-मस्तक था। राजगृही के उपान्त भाग में, एक सालवन के विशाल क्षेत्र में, प्रमुख साम्राजी सेवकों और कम्मकरों का पुरवा
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