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और सुलसा ने अकस्मात् देखा, पूजासन पर स्थित जीवन्त - स्वामी के चित्रपट पर नाग रथिक की सजल मूर्ति उभर आयी । सुलसा पुकार उठी :
'तुम कहाँ चले गये, मेरे प्रभु ? '
'तुम्हारे सामने तो हूँ, इस चित्रपट में ! '
सुलसा के भीतर अचानक द्वैत और भेद की दीवारें टूट गईं। वह देवता के चरणों में नत-विनत हो रही । कि सहसा ही, पूजा - गृह के मुद्रित कपाट पर दस्तक हुई। सुलसा ने कपाट खोले । सामने स्नान से पावन, तिलक धारण किये नाग रथिक खड़े थे । सुलसा के मुँह से बर्बस फूटा :
'आर्यपुत्र ! '
और उसने झुक कर पति के चरणों को अपनी आँखों से छुहला दिया ।
यों तो सुलसा नित्य ही पूजा के बाद पति का पाद - स्पर्श करती है । पर आज नाग रथिक को लगा कि वह स्वयं कुछ बहुत अधिक हो गया है। वह एक और कोई इयत्ता हो गया है । दूर से ही उसने चौकी पर विराजित जीवन्त स्वामी का एक झलक दर्शन पाया । 'ओह, अनोमा के तट पर प्रभु राजकुमार की जो मुद्रा देखी थी, वही तो सुलसा के पूजासन पर विराजित है । उसने गहरी दृष्टि से सुलसा की निवेदित आँखों में झाँका । और आँखों ही आँखों में दोनों ने समझ लिया, कि कुछ असम्भव घटित हुआ है । • देवर्षि राजपुत्र वर्द्धमान, और हमारे कुटीर में ? और नाग रथिक चुपचाप दूर से ही नमन कर, वहाँ से अपने रथागार में चला गया ।
नाग रथिक सम्राट विम्बिसार श्रेणिक का प्रियपात्र सारथी है । सम्राट के सारथी तो अनेक हैं, पर नाग रथिक को वे अपने दायें हाथ की तरह मानते हैं । अनेक दुर्गम राहों में, उन्होंने नाग की सारथ्य-कला की कसौटी की है । जहाँ राह अव रुद्ध हो गई है, वहाँ नाग ने अपने दिशा-ज्ञान और भू-विज्ञान से नई राह खोल दी है। गंगा-शो के संगम पर वैशाली और मगध के बीच बरसों से चल रहे शीतयुद्ध में, अनेक बार शत्रु की मोर्चेबन्दी का पता पाने के लिये, वह प्राणों की बाज़ी लगा कर वैशालकों के स्कन्धावार में सर के बल घुसता चला गया है । उनके शिविरों में चल रही युद्ध की व्यूह रचना की वार्ताओं का पता ले आया है ।
रथिक की स्वामी भक्ति पर मन ही मन निछावर हैं । वे केवल उसी से अनेक गुरा परामर्ग तक करते हैं । कई बार युद्ध की विकट घड़ियों
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