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दी। दोनों हाथों में थमी कपूर की झूलती आरती में वह स्वयं निवेदित हो रही। मन ही मन पुकारा : 'कौन हो तुम ? ओ चित्रपट के पुरुष ?'
और सुलसा को अपने भीतर ध्वनित सुनाई पड़ा : 'वैशाली का योगी राजपुत्र वर्द्धमान !'
सुलसा बिसूर कर आह भर उठी। ओह, मुझे ऐसा ही कुछ तो भान हो रहा था । ' . . स्वामी, मेरे चित्र में उतर कर तुम जीवन्त स्वामी हो गये ! हर समय सामने ही तो बैठे हो, और बोल रहे हो । मुझ साधारण नारी पर ऐसी कृपा क्यों कर हुई ? मैं एक कुटीरवासी अकिंचन रथिक की भार्या हूँ । और तुम वैशाली के अप्सरा-कूजित राजमहलों के निवासी हो । सुनती हूँ, पर्वतों और बियाबानों के प्रवासी हो । एकान्तों के विलासी हो। पता नहीं, किस नीलिमा के निलय में बिछा है तुम्हारा शयन ! भला मैं तुम्हें कहाँ और कैसे देख सकती हूँ। उस राजैश्वर्य के लोक में मुझ किंकरी को कौन प्रवेश करने देगा? . . .
_ 'आर्यपुत्र नाग रथिक ने एक बार तुम्हें अनोमा के तट पर अकेले विचरते देखा था । तुम्हारी जो भंगिमा उन्होंने बतायी थी, वह कभी भूल न सकी थी। रह-रह कर आँखों में उजल उठती थी। और यह क्या अनर्थ किया तुमने, कि तुम मेरी उँगलियों पर उतर कर, मेरे इस पूजा-कुटीर में आ बैठे ? · .. ___... 'ओ, मझ से भूल हो गयी, अपने रथिक पति को आर्यपुत्र कहने का अपराध हो गया । आर्यों के सूर्य वर्द्धमान मेरे इस बड़ बोलेपन से नाराज हो गये ? रथिक पति को आर्यपुत्र कैसे कहा जा सकता है, तुम्हारे सामने !'
और सुलसा का गला भर आया । हठात् भीतर सुनाई पड़ा : 'महावीर भी आर्य नहीं व्रात्य है, सुलसा, भारतों की इस भूमि का मूल आत्मज । इक्षवाकु ऋषभदेव का वंशज । आर्यों ने हमें व्रात्य कह कर नीचा ऑका है । मैं भी एक छोटा-मोटा रथिक ही हूँ, सुलसा, तुम्हारी ही जाति का। पर तुम्हारे कुशल सारथी पति से छोटा । तुम्हारे स्वामी नाग, सचमुच ही आर्य-पुत्र हैं। वे आत्मा के ऐश्वर्य से मंडित हैं। अभिजात हो तुम दोनो। वैशाली का वैभव तुम पर वारी है, सुलसा ! काश मैं भी तुम्हारा आर्यपुत्र हो सकता!'
और गहरे डूबते कंठ से कह पाई सुलसा : 'मेरे आर्यपुत्र !'
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