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________________ २०८ 'मेरा चित्र आँक, सुलसा, और पहचान मैं कौन हूँ !' हठात् सुलसा की आँख खुल गयी। खिड़की में से ब्राह्म मुहूर्त का गोपन उजाला फूट रहा था । वह 'अर्हन्त' कहती हुई उठ बैठी। और वसन उठा कर नदी के एक अत्यन्त एकान्त प्रदेश में नहाने चली गयी । वह बेहिचक निर्वसन हो कर, तैरती हुई नदी की मझधार में चली गयी । नदी की बाहों में किसी ने उसे बाँध लिया । और उसे लगा कि वह स्वयं एक अनन्तिनी नदी हो गयी है। तट पर आ कर उसने वसन धारण किये । और ऊषा फुटने से पूर्व के जामुनी उजाले में, वह नदी तट पर शंख, सीपी, रंगीन पत्थर चुनने लगी। कगार पर से अलग-अलग रंगों की मिट्टियाँ बटोर लीं। और अचानक उसे एक लिंगाकार स्निग्ध पत्थर दिखायी पड़ा । इतनी कोमल और संस्पर्शी है उस पत्थर की त्वचा, कि मानो उसे छूते ही, उसमें से रक्त छलक उठेगा । सुलसा मुग्ध, विस्मित हो रही। उसने बड़े समादर से उस सुगोल शिला के प्रकृत लिंग को अपने माथे से लगा, आँचल में बटोर लिया। फिर घूघट डाल कर आँचल के भीतर ही उस मृदु शिला को बहुत ही हलके परस के साथ, जाने कैसे प्यार से सहलाने लगी। · · ·और देखते-देखते उस लिंगम् में यह कैसी मोहिनी मुरत उभरी आ रही है । नक्श की महीन से महीन रेखाएँ तक सजल हो आई हैं। कौन है यह ? वह वक्षभार से नम्रीभूत होती सी घर की राह चल पड़ी। घर लौट कर तुरत पति की रथशाला में गयी। वहाँ से टूटे रथ का एक पटिया उठा लायी। उसे धो, पोंछ कर स्वच्छ कर लिया। और आँगन के मौलश्री वृक्ष तले बैठ कर वह परों से उस पर चित्र आँकने बैठ गयी। नाना रंगी मिट्टियाँ, पानी की हरी काई, सीपी-शंख के चूर्ण । गेरू, खरिया, हल्दी, कुंकुम । माटी के सकोरों में सामने फैले हैं । और वह परों की तूली चलाती रही । सपने में देखा वह रूप पट्टिका पर उभरता आया । ओह, कितना परिचित और निकट का है यह जन ! फिर भी कितना दूर, अपरिचित, किसी अन्यत्रता का प्रवासी। कौन है यह ? ___ सुलसा जैसे मन ही मन समझ गयी। उसके पति नागदेव नदी स्नान को गये थे। वह अपने अवकाश में मुक्त विचर रही थी। चुपचाप जा कर अपने पूजा-कक्ष को खोला। चौकी पर की मूलनायक अर्हत् प्रतिमा के पास ही उसने वह चित्रपट वहाँ बिराजमान कर दिया। उसके सम्मुख वह प्रकृत लिंगम्' स्थापित कर दिया। उसका अभिषेक कर के उसे अपने आँचल से पोंछ दिया । फिर पूजार्घ्य धर कर दीपक उजाला ।· · ·और लो, धूप-शलाका की गन्ध में देवता उत्थान करते दीखे। फल-फूल, कमल, पल्लव चढ़ा कर, केशर छिड़क Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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