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________________ मर्त्य मनुष्य की माँ को उत्तर दो, महावीर नाग रथिक की पत्नी सुलसा चन्दन लता की तरह लचीली, सुन्दर और पवित्र है । बहुत विचित्र मन पाया है उसने । नदी को देखती है, तो स्वयं नदी हो रहती है । और तन्मयता में हठात् वह जाग कर देखती है कि वह नदी नहीं, उसकी स्थिर शैया है, और नदी उसमें से रात-दिन बहती रहती है । यह नदी मानो उसका वक्षोज है। और उसमें सब कुछ आलिगित है। वह पेड़ को देखती है, तो केवल उसे ही देखती है। उसकी नाम-संज्ञा तक भूल जाती है। केवल पेड़, एकाग्र । उसके बाहर कुछ भी नहीं। · · ·और अचानक पाती है, कि वह केवल अपने को देख रही है। कितनी सुन्दर है वह स्वयं ! कहाँ हैं वे आँखें, जो उसके इस रूप को देख और पहचान सकेंगी ? उसका अपना वह चेहरा, जिसके बाहर और कुछ भी होने का आभास नहीं। केवल एकमेव वह स्वयं। इतनी बड़ी गरिमा को वह सह नहीं पाती है । सहम-सहम जाती है। यह क्या हो रहा है उसके साथ ? नदी से पानी भर कर लौटती है, तो कौन उसकी माथे की कलसी में छलक-छलक उठता है ? कौन उसकी कमर पर धरी गागर के जल में उसे नाम देकर पुकारता है ? गागर की गर्दन में पड़ी उसकी गलबाही किसी अज्ञात, अनाम प्रीतम की ग्रीवा में पड़ जाती है। उसके स्तनों पर कोई सर धर देता है । उसके शरीर में कोई विद्युत्-पुरुष निर्बन्ध खेलता है। हाय, वह कैसे सहे, इतनी उसकी समायी नहीं। एक रात सुलसा को सपने में वह रूप दिखायी पड़ा। कितना स्पष्ट, सांगोपांग । लगा कि उस चेहरे को पहले कहीं देखा है। याद नहीं आता, कहाँ देखा है । कैसी आत्मीय मुद्रा है ! जनम-जनम में सदा ही तो यह साथ चला है । · · ·उसकी तहें उभर कर बाहर आ गईं। और उन पर वह चेहरा, वह त्रिभंगी रूप छप गया । और जैसे किसी ने कहा : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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