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________________ ' किस उपाय से ?' 'निरुपाय हो जा । कुछ और होना है, यह अभीप्सा तक त्याग दे । बस जो है, अभी और यहाँ, वही रह । और देखदेख, जान 'जान, हो' हो। वह जो तू है ही । २०६ नन्दिषेण को लगा कि उसका शरीर अन्तरिक्ष में विसर्जित हो रहा है । वह अपने भीतर के अथाह में उतरा जा रहा है । वहाँ बाहर की सारी अनम्य आकृतियाँ सुनम्य हो रही हैं । पुद्गल में जो कुछ बाधित, हठीला और कठोर है, वह लचीला, निर्बाध और नर्म हो रहा है। परिधियाँ जल-भँवर की तरह फैलती हुई, जाने कहाँ तिरोमान हो रही हैं । द्रव्य मात्र लोचभरी माटी की तरह हो कर, उसकी मनोकाम्य आकृतियों में ढल रहा है । उसमें इन्द्रनीला से लगा कर अतीत और अनागत जन्मान्तरों तक की सारी कामिनियाँ तरंगों की तरह उठ और मिट रही हैं। मिट मिट कर फिर उठ रही हैं। उसके अपने ही भीतर । कहीं कुछ भी तो खोता नहीं, नष्ट नहीं होता । सब उसके भीतर नित्य विद्यमान और परिणमनशील है । नित नये परिणाम उत्पन्न कर रहा है । नित नव्य सृजन हो रहा है । 'ओह, मुझे परा - कला उपलब्ध हो गई ? मैं अपने परा काम्य और भोग्य को स्वयम् ही रच सकता हूँ ? वही हो सकता हूँ उसे सुनाई पड़ा : 'एवमस्तु .. और नन्दिषेण बिन्दु-नाद - कला का अतिक्रमण करता हुआ, उनसे परे तुरियातीत समाधि में स्तब्ध हो गया । !' Jain Educationa International ठीक उसी क्षण इन्द्रनीला आ कर श्रीभगवान के चरण-प्रान्तर में शरणागत हुई । अर्हत ने उसे अपना लिया । • और विपल मात्र में ही वह प्रभु की सती हो गई । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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