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'ऊर्ध्वरेतस् होने पर क्या होता है, प्रभु ?'
'बिन्दु स्थिर हो कर ऊपर की ओर आरोहण करता है। ऊर्जा अव्यय और अक्षय्य हो जाती है । वह व्यय और क्षरित हुए बिना ही, अनन्त और अपार सौन्दर्य का सृजन करती है। पारे में डूबा लोह स्वयम् सिद्ध-रस में लीन हो जाता है। तब सम्भोग और सृजन, स्वयम् सत्ता में ही मौलिक रूपान्तर उपस्थित करता है। तुम्हारे सम्मुख उपस्थित अर्हत् का पारदर्श दिव्य शरीर उसका प्रमाण है। यही आत्मकला है, चित्कला है, परा कला है।'
'तो मानुषी कला स्वयम् ही अपनी साधना में उत्तरोत्तर परामानुषी हो सकती है ?'
. 'निर्भर करता है, साधक की अभीप्सा पर, उसकी साधना के सातत्य पर। जो चाहेगा, वही तो पा सकेगा। रमणी पर ही तेरी चाह रुकी हो, तो वही तो पा सकेगा!'
'तो रमणी अनन्तिनी नहीं हो सकती, स्वामिन् ?'
'तु वह चाहेगा तब न? रमणी में अनन्त रमण करने को उसकी देह के सीमान्त से निष्क्रमण कर जाना होता है। तू कर आया न, अपनी पुकार और अभीप्सा से बेचैन होकर !' 'तो आत्मा और काम में विरोध है, भगवन् ?' 'कैवल्य-द्रष्टा कवियों ने, आत्मा का एक नाम काम भी कहा है !' 'आश्चर्य, भन्ते भगवान् ।'
'वह आत्मा काम है, क्यों कि वह राम है। रमण उसका स्वभाव है। लेकिन स्व में रमण, पर में नहीं। अत्र, अन्यत्र नहीं। काम ही यहाँ राम का साक्ष्य प्रस्तुत करता है। काम का एक मात्र और अनिवार्य गन्तव्य है, राम । काम है ही इसलिये, कि वह राम हो जाये। वही उसकी एकमेव नियति है। काम है, तो वह राम हो कर रहेगा। फिर उससे भय कैसा ? दोनों में विरोध कैसा? केवल दर्शन और ज्ञान सम्यक हो जाये, तो सारे विरोध और द्वन्द्व स्वतः समाप्त हो जाते हैं।'
'वह कैसे सम्भव है, प्रभु ? अशक्य लगता है। कल्पना में नहीं आता।'
'वह कल्प्य नहीं, मनोधार्य नहीं, चिन्त्य नहीं। वह केवल भव्य है, अनुभव्य है, उद्भव्य है। वह हो कर जान, कि वह क्या है !'
'कैसे प्रभु, कैसे होऊँ ?'
'पूछ मत, चुप हो जा। अप्रश्न, स्तब्ध, अक्रिय हो जा। अपने ही प्रति अपने को निर्बाध खोल दे। अपने ही में समर्पित, विसजित हो जा।'
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