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नहीं। जब एक ही अविभक्त क्षण में प्रसारण और अपसारण सम्भव होता है, तब जानो कि आत्मकला का उत्सृजन हुआ है। उसमें प्रतिक्रिया रुक जाती है, और शुद्ध क्रिया प्रकट होती है।'
'तो मानुषी कला की उपलब्धि क्या, भगवन् ?'
'वह पश्यन्ती है। वह वस्तुओं और व्यक्तियों की अन्तरिमा में झाँकती है। उसे उजालती है, आलोकित करती है। उसे परा-भौतिक दर्शन और अनुभूति का विषय बनाती है। वह पारान्तर तक दिखा सकती है। पर उसमें भीतर बाहर नहीं हो पाता, बाहर भीतर नहीं हो पाता। उसमें भीतर-बाहर एक नहीं हो पाता। वह सिर्फ कैवल्य-कला द्वारा सम्भव है। वहीं परा कला
'तो पूछता हूँ प्रभु, क्या मानुषी कला और कविता किंचित भी अस्तित्व और मनुष्य का मनचाहा रूपान्तर नहीं कर सकती ? क्या वह हमें चैतन्य में अवस्थित नहीं कर सकती?'
'ऐन्द्रिकः कला से वह शक्य नहीं। अतीन्द्रिक सृजन में ही वह सम्भव है ?'
'मैंने गणिका इन्द्रनीला के संगीत और उत्संग में, ऐन्द्रिक सुख को ही अतीन्द्रिक में परिणत होते अनुभव किया। क्या वह मेरा भ्रम था ?'
'उसमें तेरी चेतना का उदात्तीकरण हुआ, प्रशस्तीकरण हुआ। ऊर्वीकरण हुआ। ऐन्द्रिक बोधजन्य कला वहीं तक जा सकती है। पर तू वह नहीं हो सका। तू स्वयम् 'रसोवैसः' नहीं हो सका।'
'पूछता हूँ, प्रभु, क्या कला देह, प्राण, इन्द्रिय, मन का रूपान्तरण नहीं कर सकती? क्या वह हमारी देह की कोशिकाओं को बदल कर एक नये मनुष्य को नहीं रच सकती ?'
'विकास हो सकता है। एक उच्चतर दैहिक, मानसिक, ऐन्द्रिक मनुष्य क्रमश: प्रकट हो सकता है। यहाँ उपस्थित यह देवसृष्टि वही तो है। पर यह सब केवल जैविक-मानसिक विकास और उत्क्रान्ति है। यह समूल अतिक्रान्ति नहीं।
'वह कब, कैसे सम्भव है, भगवन् ?'
'जब आत्म अपने में अवस्थित होता है, देह को उसी में अवस्थित रहने देता है। जब देह, प्राण, मन, इन्द्रिय परस्पर सम्वादी हो कर भी एक-दूसरे में हस्तक्षेप नहीं करते। तब स्वतः ही मनुष्य की ऊर्जा-ग्रंथियों का स्राव नीचे की ओर होना बन्द हो जाता है। वह उलट कर ऊपर की ओर होने लगता है। इसी को तो पराविज्ञानी योगियों ने ऊर्ध्वरेतस् होना कहा है।'
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