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'तेरा भोगानुबन्ध पूरा हुआ, सौम्य ।' 'समाप्त हो गया, भगवन् ?' 'सम्पूरित हुआ। समाप्त कुछ होता ही नहीं, केवल आप्त होता है।'
'प्रभु के अनुग्रह से मैंने कविता और कला को देह में जिया, भोगा। मर्त्य माटी में अमरत्व का आस्वाद पाया।'
'अभी बहुत कुछ शेष है। अनन्त है।' 'तो मैं भ्रान्ति में था, भगवन् ?' 'नहीं तो लौट कर यहाँ क्यों आता, नन्दिषेण ?'
'तो प्रभु, इन्द्रनीला का वह संगीत, वह सौन्दर्य, वह कला मात्र माया थी, जिसे मैंने महीनों भोगा, रचा, जिया, जाना?'
'माया तो कुछ भी नहीं यहाँ। सब सघन पदार्थ हैं, जो पश्य है, ज्ञेय है, इसी से भोग्य है। होता है केवल अतिक्रमण, उच्चतर में आरोहण ।'
'तो भगवन्, क्या कला द्वारा चरम लब्धि सम्भव नहीं?'
'कला स्वयम् एक योग है, देवानुप्रिय। उससे कुछ भी असाध्य नहीं। पर तब, जब वह चित्कला हो जाये। जिस कला की साधना तुम कर रहे हो, वह उच्च प्राण और उच्च मन से आगे नहीं जाती। वह पार्थिव और दिव्य की सन्ध्या है। वह मिश्र रंगों और प्रकाशों का अराजक लोक है। वह परम मानसी कला है। यह अपरा कला भी परा कला के ज्योतिर्मय तट चूम आती है। पर वहाँ रह नहीं पाती। उस तट पर उतर कर जो वहीं रम जाये, वही कला तुम्हें सीखना है, नन्दिषेण ।'
'प्रभु के अनुगृह से आपो आप सीख जाऊंगा। पर पूछता हूं प्रभु, यह अपरा कला कहाँ तक ले जा सकती है? आलोकित करें, प्रभु !'
'यह अपरा कला इस अपारदर्श पुद्गल को पारदर्श बनाने की दृष्टि दे सकती है। मृणमय के तमस में चिन्मय का दिया जला सकती है। लेकिन अन्धकार के आवरणों को अन्तिम रूप से छिन्न नहीं कर सकती। दर्शन, अवबोधन, सर्जन एक बात है, तद्रूप हो जाना दूसरी बात है।'
'प्रतिबुद्ध हुआ, नाथ। काम और कला को और भी आलोकित करें।'
'सर्जन में काम-कला का विलास होता है। बिन्दु से नाद, और नाद से कला का प्रकटीकरण होता है। मानुषी कला आत्माभिव्यक्ति तक ही जा पाती है। आत्म-संस्थिति तक नहीं पहुंच पाती। वह कला प्रसारण मात्र है, अपसारण
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