SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०० कुछ करवा लेती है । फिर भी नन्दिषेण अक्रिय नहीं है । उसमें ऐसी एक शुद्ध क्रिया है, जो सम्भोग तक को चिन्मय और आलोकित कर देती है । इन्द्रनीला को लगता है, कि इस सुख का ओर-छोर नहीं । । नन्दिषेण अपने में थिर और पूर्ण भोगता है, उस सब को वह निरन्तर अविराम के लि-क्रीड़ा चलती रहती है में रमण करता है । कामकला के नित-नव्य आयाम उसकी में प्रकट होते हैं । और नीला के विस्मय और विमुग्धता उसे लगता है, कि यह पुरुष हर पल उसमें एक नया शरीर रच रहा है, नया सौन्दर्य अनावरित कर रहा है। क्रीड़ा में लीन जब वह छत और दीवारों के दर्पणों में अपने को देखती है, तो पहचान नहीं पाती है । का अन्त नहीं । संचेतन है । वह जो भी कुछ करता है, देखता रहता है । फूलों-लदी शैया में साक्षात् कामदेव की तरह वह इस रति कविता और कला नन्दिषेण रति में आप्राण डूब जाता है, फिर भी तट पर खड़े हो कर बन को देखता है । उसे एकाग्र और समग्र महसूसता है । प्रिया के अंगों के तोड़ों, मरोड़ों, भंगों की एक-एक सूक्ष्मतम चेष्टा को, उसकी तमाम बारीकियों में वह तन्मय हो कर देखता रहता है। उसके शरीर के गोपन प्रदेशों में वह हर दिन नित नये रहस्यों की गुफाएँ खुलती देखता है । उनके निविड़ अन्धकारों में वह बेधड़क यात्रा करता चला जाता है । इन्द्रनीला के एक - एक अंग और अवयव के सौष्ठव में, वह जाने कितनी कविताएं पढ़ता है, जाने कितने चित्र आँकता है, जाने कितने शिल्प उरेहता है । उसे लगता है कि उसकी कला ने मर्त्य माटी की देह में अमृत के सोते खोल दिये हैं । हर दिन सवेरे इन्द्रनीला उसे अपने हाथों नाना सुगन्ध-जलों और अंगरागों से नहलाती है । फिर स्वयम् उसकी गोद में बैठ नहाती है । न्हान की जलधाराओं में देह मानो उड़-सी जाती है। बस, एक सुगन्ध में दूसरी सुगन्ध सरसराती रहती है । स्नानोपरान्त इन्द्रा नन्दिषेण को हर दिन नये ताज़े अंशुक का अन्तर्वासक और उत्तरीय पहनाती है । फिर उसे फुलैल में बसा कर, पुष्पहार पहना देती है । अनन्तर घर के कामों में लग जाती है। अपने हाथों स्वयम् रसोई बनाती है। उसकी हर सेवा स्वयम् करती है । दासियों का उसमें कोई काम नहीं । काम में लगी हो कर भी, बार-बार झाँक कर एक दरदभरा कटाक्ष दे जाती है । Jain Educationa International नन्दिषेण चुपचाप मुस्काता हुआ, इस मोह माया के नये-नये आयामों और कोणों का ईक्षण करता रहता है । उन्हें अविराम अधिक-अधिक जानता रहता है। नयी-नयी पर्तें खुलती जाती हैं, जैसे कमल के बेशुमार दल एकएक कर खुल रहे हों । 'और अनायास विषयानन्द ही आत्मानन्द हो रहता For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy