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________________ इन्द्रनीला ने बाल बिखेर लिये। कंचुकि-बन्द तोड़ दिये । और वह आक्रन्द विलाप करती श्रमण के पीछे दौड़ी : 'हाय प्राणनाथ, मुझ से भारी भूल हो गई। अपराध क्षमा करें। मेरे जनम-जनम के स्वामी द्वार पर आये, और मैं उन्हें पहचान न सकी। रुको, रुको मेरे सर्वस्व, नहीं तुम अब कहीं नहीं जा सकते । तुम्हारी याद और तलाश में ही तो संगीत के सप्तक तोड़ रही हूँ। · · 'मेरे प्रभु, लौट आओ, लौट चलो। मेरी शैया चिर काल से तुम्हारी प्रतीक्षा में है। उसे अंगीकारो, मुझे दिवा-रात्रि भोगो, मेरी जनम-जनम की प्यास हरो। मुझे कृतार्थ करो, मेरे देवता।' और रुदन से बिसूरती हुई, वह श्रमण के उन लौटते चरणों में लोट गयी । उसने संन्यासी के उन धूल भरे और बिवाइयाँ फटे पैरों को, अपनी कमनीय बाँहों में जकड़ अपने वक्ष के गहराव में समेट लिया। संन्यासी कीलित, बेबस, कैदी हो रहा । किसी चिर परिचित प्रीति की रति-रात्रि में वह मूच्छित हो गया । उसका आत्म-भान चला गया। वह जैसे किसी अन्य ही जन्म के तट पर जाग उठा । · · · वह चुपचाप कीलित-सा इन्द्रनीला का अनुसरण करता, उसकी अट्टालिका में चला आया। ‘कब उस नग्न तापस को स्नान-अंगराग करवा कर, बहुमूल्य वस्त्रों और आभरणों से मंडित कर दिया गया, उसे पता ही न चला। कब रात हुई और वह इन्द्रनीला के बाहुपाश में आश्लेषित हुआ, इसका उसे भान ही नहीं रहा। · · ·इसी प्रकार कई दिन बीत चले । काल-चेतना में जैसे वह नहीं रह गया है। दिन और रात का भेद लुप्त हो गया है। एक अति निगूढ़ आप्त भाव से, वह इस कामिनी के भोग-समुद्र में स्वच्छन्द सन्तरण कर रहा है। बस, जैसे परिमल-पराग में तैर रहा है । देह-चेतना और आत्म-चेतना की एक अनोखी सान्ध्य द्वाभा में वह अनायास विचरण कर रहा है। उसे लगता ही नहीं कि वह देह है। यदि वह कुछ है, तो बस एक चेतना है, जो विवर्जित है, और सहज बह रही है। यह रम्भा जैसी वारांगना, उसकी चरण-दासी हो कर रह गयी है। हर समय उसके आसपास भाँवरें देती रहती है। नाना सिंगार, नित-नूतन भावभंगिमा और लीला-कटाक्ष से उसे रिझाती रहती है । अपने संगीत और नृत्य के अति सूक्ष्म गोपन प्रदेशों में उसे ले जाकर, अपने बाहुपाश में उसे समाधिस्थ कर देती है। वह जितनी ही अधिक चंचल है, मन्दिषेण उतना ही अपनी जगह अचल है। उसे मानो कुछ करना ही नहीं है, यह रमणी ही उससे सब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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