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नन्दिषेण मनि चलते-चलते अटक गये । उस दर्दीले संगीत के आलाप में वे समाधि-लीन से हो गये। किसी राहगीर ने व्यंग-बाण मारा : 'यह तो नगरवधू इन्द्रनीला की अट्टालिका है। धन्य है यह ढोंगी श्रमण, जो गणिका के गान से बेहोश हो गया है!
नन्दिषेण पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा। वे अविकल्प उस रसधारा में लीन रहे । गणिका को नहीं, वे मानो गायत्री की सन्ध्या-रागिनी को साक्षात् सुन रहे थे। उन्हें प्रत्यय हो रहा था, कि कला यहाँ सोक्ष के सिद्धाचल पर आरोहण कर गई है । · · 'ओह, मेरा अभीष्ट यहाँ है, यहाँ है, यहाँ है।'
वहाँ तिमंज़िले पर गाते-गाते इन्द्रनीला भी जाने किस जन्मान्तर की मोहरात्रि में मूच्छित हो गई। मानो कि उसका गान, अपने लक्षित प्रीतम तक पहुंच गया है । · · 'हठात् एक गहरे आघात से उसकी मूर्छा टूटी, किसी अदृष्ट ने उसे अरोक खींचा। वह आविष्ट-सी अन्धड़ की तरह भागी, और द्वार पर आ खड़ी हुई ।
नन्दिषेण की समाधि टूट गयी। उन्होंने अपने सम्मुख उस संगीत के दर्दीले सौन्दर्य को मूर्तिमान देखा । आँखों से आँखें मिलीं । ठगौरी पड़ गई । प्राण में प्राण बिंधने लगे।
· · ·अचानक नन्दिषेण मुनि संचेतन हो आये। वे वीतराग और तटस्थ दीखे । उनके मुख से निकला :
'धर्मलाभ, देवी !' वेश्या घायल नागिन की तरह फुफकार उठी :
'यहाँ धर्म-लाभ का क्या काम ! यहाँ तो अर्थ-लाभ चाहिये, महाराज ! गणिका का द्वार श्रमण के लिए नहीं, श्रेष्ठि के लिए खुलता है।'
नन्दिषेण की सुकुमार सम्वेदना को जैसे किसी ने खड़ा चीर कर फेंक दिया । व्यथा और रोष से वे रुद्र और विक्षुब्ध हो उठे । क्रोध से तपस्वी की ऊर्जा अपने चरम पर पहुंच गई। ऐसी कि वह जो चाहे, वही हो जाये । उन्होंने एक तिनका धरती पर से उठाया, और उसे बीच से दो टूक तोड़ कर गणिका के पैरों पर डाल दिया, और बोले : 'ले यह अर्थ-लाभ !'
और अन्तर-मुहूर्त मात्र में उस टूटे तिनके के भीतर से सुवर्ण और रत्नों की राशियाँ बिखर पड़ी। ' 'उधर नन्दिषेण मुनि तत्काल मुंह मोड़ कर चल दिये । वे सुदृढ़ क़दमों से दूर पर जाते दीखे ।
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