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________________ २०१ है। महावीर के शब्द मंत्र की तरह उसके रोमों में गूंजते हैं। वह उनके प्रति कृतज्ञता से सजल हो आता है। कभी-कभी एकाएक लगता है, कि वह कहीं नहीं है, वे महावीर ही हैं, जो यहाँ उपस्थित हैं। · · · वह हठात् अपनी देह में महावीर को क्रीड़ा करते देख लेता है। नन्दिषेण को लगता है, कि उसका भोग ही ज्ञान हो गया है। उसका अनुभव ही प्रकाश हो गया है। उसे अपने में से ज्ञान बहता दीखता है। वह स्वयम् नहीं, कोई तीसरी सत्ता उसमें यहाँ सक्रिय है। उसने संकल्प कर लिया है, कि वह प्रति दिन प्रात: दस व्यक्तियों को प्रतिबोध देकर, श्रीभगवान के समवसरण में भेजेगा, तभी भोजन ग्रहण करेगा। उसके ज्ञान की सुगन्ध आसपास के लोक-जन में फैल गयी है। हर दिन अनेक व्यक्ति उसके पास प्रतिबोध पाने को खिचे चले आते हैं। उनके प्रति अपने को निवेदन कर वह कृतकामता अनुभव करता है। एक दिन की बात। नौ आत्माएं प्रतिबुद्ध हो कर प्रभु के समवसरण में चली गयीं। दसवाँ व्यक्ति नहीं आया। नहीं आया तो नहीं आया। जैसे कहीं अटक लग गयी है। शर्त बद गयी है। बेला टलती चली गयी। नन्दिषेण उदग्र द्वारापेक्षण करता रहा। पर कोई परछाँहीं तक न झाँकी। नन्दिषेण उदास और विकल हो आया। उधर पाकशाला में इन्द्रा ने उसके लिये पाटा-चौकी बिछाये। दिव्य रसवती सँजो कर, उसे बुलाने आयी। नन्दिषेण ने उसकी ओर ध्यान न दिया। उसके सारे निहोरे, और स्नेह-कटाक्ष पराजित हो गये। नन्दिषण ने उसकी ओर आँख उठा कर तक न देखा। इन्द्रा थक गयी, झल्ला गयी। उसने अपने नारीत्व को अवहेलित अनुभव किया। एक मर्मान्तक अपमान से वह घायल हो गयी। रोष से उत्तेजित हो कर, उसने पास आ कर नन्दिषेण को झकझोर दिया : ___'तुम्हें आज क्या हो गया है? कुछ होश है कि नहीं! रसवती का थाल लगा है, भोजन ठण्डा हो रहा है। और मैं पुकारते-पुकारते थक गयी। पर तुम्हारे कान पर जूं तक नहीं रेंगती ? उठो' - 'उठो' · · उठो न !' ___ नन्दिषेण टस से मस न हुआ। उसकी दृष्टि पथ पर एकटक लगी है। उसकी आँखें पथरा गई हैं। वह अचल दिङमूढ़ सा बैठा है, एक ही आसन में अडिग। उसे प्रलय भी नहीं हिला सकता। इन्द्रनीला रो आई। उसने फिर झुंझला कर नन्दिषेण को झंझोड़ा। 'मुनोगे कि नहीं ? वर्ना मैं अपना सिर फोड़ दूंगी।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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