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इन्द्राणियाँ, ये देवकुल, ये अप्सराएँ, यह रत्नों का आभालोक, ये नाट्यशालाएं, ये किन्नर-गन्धर्वो के गान-नत्य ! सौन्दर्य यहाँ पूर्ण और शाश्वत में आकृत दीखता है। कला और कविता यहाँ निरी वायवीय नहीं, उसने स्पृश्य देह धारण की है। अतीन्द्रिक ऐश्वर्य, भोग, सौन्दर्य यहाँ इन्द्रियों द्वारा संवेद्य, आस्वाद्य और ग्राह्य हो गया है।
नन्दिषेण मन्त्र-सम्मोहित सा श्रीमण्डप में चला आया। सहसा ही उसकी आँखें गन्धकुटी की मूर्धा पर जा अटकीं। उस चिद्घन सौन्दर्य की विभा को उसने ठोस शरीर में आकृत और संवरित देखा। एक ऐसा शरीर जिसे वह अभी-अभी छ सकता है। उसके सान्निध्य और सुखोष्मा से सम्वेदित हो कर वह तरल हो आया। उसे किसी ने अपना लिया, अपने वक्ष के श्रीवत्स में चाँप लिया। उसकी आँखें छलक आई।
वह गन्धकुटी के पाद-कमल को ललाट और बाहुओं में भींच कर, बिछ गया। कस कर पकड़ता ही चला गया किन्हीं चरणों को, जो उसके हृदय पर उतर आये थे। और उसे अचानक एक झटका अनुभव हुआ। किसी ने वे चरण खींच लिये । वह अपने खाली हाथों को ताकता स्तब्ध खड़ा रह गया।
सहसा ही उसने साहस पूर्वक रुद्ध कण्ठ से अनुरोध किया : 'मेरी अन्तिम पीड़ा के सहभागी, मेरे नाथ । मुझे अपने ही जैसा बना लें!'
उसे कोई उत्तर न मिला। एक सन्नाटे में वह अकेला छूट गया। वह बार-बार अपनी विनती को दुहराता रहा। पर उस अधर पर बैठे कामदेव ने कोई उत्तर न दिया। नन्दिषेण सिर धुनता रहा, भीतर ही भीतर आक्रन्द में फूटता रहा। मानो कि उस अर्हत् के रक्त-कमलासन पर अपना ललाट रगड़ता रहा। उत्तर में व्याप्त रही एक निःसंग, निर्मम चुप्पी । हार कर वह निढाल समर्पित, जानुओं के बल बैठ गया। विचार और विकल्प की धारा खामोश हो गयी। वह केवल श्रवणेन्द्रिय हो कर, शून्य में उदग्र हो रहा। हठात् सुनाई पड़ाः
'नन्दिषेण, अभी समय नहीं आया !'
'सर्वज्ञ ने मेरे अकिंचन नाम-रूप को स्वीकारा। मेरी धन्यता का पार नहीं। मुझे अपना लें, मेरे स्वामी !'
'नहीं तो यहां कैसे आ सकता, देवानुप्रिय !' 'मुझे जिनेश्वरी दीक्षा प्रदान करें, भगवन् !'
भगवान फिर मौन रह गये। एक निस्पन्द नीरवता में नन्दिषेण छटपटाता रहा। मन ही मन उसने रट लगा दी : 'मुझे श्रीचरणों में अंगीकार करें,
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