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दिशा में अपना प्राप्य खोजने को उद्यत है। वह असम्भव पर अपना दाव लगाये है। वह शून्य में खो जाने का ख़तरनाक खेल खेल रहा है।
• . 'अरे कौन उसकी इस महावेदना को समझेगा? मनुष्य की सहानुभूति से परे है, उसकी यह पीड़ा। वह नितांत अकेला पड़ गया है अपनी राह पर । कहाँ मिलेगा उसे कोई कूल-किनारा? उसकी उच्चाटित आत्मा को कहाँ मिलेगा कोई घर, आधार, आयतन ?
नन्दिषेण राजकुल के साथ श्री भगवान की वन्दना को नहीं गया था । वह अपने वीरानों में लापता. लामक़ाम खोया था। किसे पड़ी थी उसे खोज निकालने की ? उसकी माँ रानी बिन्दुमति राज-परिवार के साथ भगवन्त के समवसरण में गयी थी। उसके मुँह से उसने सुना था कि अर्हन्त महावीर के पास ऐसा रसायन है, जिससे अस्तित्व और देह का रूपान्तर हो जाता है । वे स्वयम् उसके प्रमाण हैं । उन प्रभु के आहार भी नहीं, सो निहार भी नहीं। उनके भीतर ही अमृत का सोता बहता रहता है ।। उससे वे सहज ही पोषण पा कर परितृप्त रहते हैं, और जीवन धारण करते हैं । पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से उनका शरीर मुक्त हो गया है । सो उनकी काया अब पृथ्वी-बद्ध नहीं। वे फूल-से हलके हो कर अन्तरिक्ष में रम्माण हैं। वे अधर में ही उठते-बैठते, चलते-फिरते हैं। पार्थिव माटी से वे कुछ ग्रहण नहीं करते। इसी से भारहीन हो कर, पृथ्वी से ऊपर उठ गये हैं। और अन्तरिक्ष में विचर रहे हैं।
आज मध्य-रात्रि की निस्तब्ध बेला में, चरम उच्चाटन की पीड़ा में, नन्दिषेण को माँ की वह बात स्मरण हो आयी । उसे एक सहारा-सा मिला। उसने एक दुरन्त खिंचाव अनुभव किया। एक अरोक सम्मोहन से वह आकृष्ट होता चला गया।
· · ·और बेला-अबेला का भान भूल कर, वह उस असूझ अँधियारी रात में बियाबान की राह पर निकल पड़ा । वह अपने बावजूद अपने मोह-राज्य से अभिनिष्क्रमण कर गया।
राजगृही के गुणशील उद्यान से भगवान कभी के विहार कर चुके थे। मगध के अनेक ग्रामों, नगरों, वनों, उद्यानों को अपनी धर्म-देशना से प्लावित करते हुए, वे प्रभु इस समय विदेह देश के सीमान्त पर, अशोक-वन चैत्य में समवसरित थे।
नन्दिषेण ने समवसरण में पहुँच कर सुखद आश्चर्य का अचूक आघात अनुभव किया। उसे प्रतीति हुई कि उसका चिर दिन का स्वप्न यहाँ साकार हुआ है। उसने अपनी सर्जना में भाव और सौन्दर्य का जो विश्व साक्षात् किया था, वह मानो यहाँ मूर्त और प्रत्यक्ष हो उठा है। ये देवांगनाएँ, ये
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