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मंत्र बना देना चाहा है। रमणी देह के उभारों, गहरावों, भंगों और मोड़ों को उसने चित्र और शिल्प में सातत्य प्रदान करने की चेष्टा की है। प्रायः ही सर्जना के इन क्षणों में उसे अमरत्व का कैसा अचूक अनुभव और अहसास हुआ है।
रक्त-मांस के सान्निध्य, संस्पर्श और ऊष्मा में डूब कर उसे बारम्बार लगा है कि अथाह और अन्तहीन है यह सुख, यह आनन्द, यह तृप्ति। उन क्षणों में उसे कैसी अटल प्रतीति हुई है, कि नहीं, नहीं, नहीं-यह रति, यह आरति विनाशिक नहीं, भंगुर नहीं, यह अक्षुण्ण और अनन्त है। वह घर पर है, यहाँ विराम है, मुकाम है, प्रश्रय है। और अपनी कला में उसने इस सचोट और ज्वलन्त अनुभूति को शाश्वती में उत्क्रान्त और उन्नीत किया है। अपनी कृति में उसे स्पष्ट लगा है, कि वह मृत्यु को तर गया है, अमृत में उत्संगित हो गया है ।
लेकिन यह क्या है, कि सौन्दर्य, संवेदन, भाव, अनुभूति, मिलन, भोग, आलिंगन का वह कला-विलास भी अगले ही क्षण कपूर के महलों की तरह विलय होता लगता है। कविता का दिव्य वैभव जीवन में नहीं उतर पाता है। कला की बादल-खेला आकाश में चित्रित होती रहती है, और धरती पर जीवन मृत्यु, क्षय, विनाश, दुर्गन्ध, सडाँध में कराहता चीख़ता रहता है।
· · · नन्दिषण उस सारी रात घटता रहा, रोता रहा, आक्रन्द करता रहा। हाय, वह कहाँ जाये, क्या करे, कैसे अपने अस्तित्व को इस मर्त्यता में से उठा कर किसी सम्भाव्य अमरत्व में आरपार मुक्त और मूर्त करे। विदेह निर्वाण में नहीं, प्रत्यक्ष मूर्त ऐन्द्रिक जीवन के चंचल, गतिमान स्तर पर ।
उसके जी में उत्कट और अपराजेय प्रश्न है, कि कविता, कला, सर्जना की राह ही अभीष्ट मुक्ति, रूपान्तर, परम प्राप्ति क्यों न सम्भव हो? अपने रचना-क्षणों की तन्मय प्रक्रिया में, उसे अचक रूप से अपने भीतर अमृत का स्राव और साक्षात्कार अनुभव होता रहा है। क्या वह प्रतीति निरी भ्रांति है ? क्या उसका वह साक्षात्कार केवल क्षणिक इंद्रजाल है ? नन्दिषेण के भीतर एक अनिर्वार हठ है, अचल संकल्प है : वह कला के माध्यम से ही अपने मन चाहे पूर्णत्व को उपलब्ध करके चैन लेगा। उसे नहीं लगता कि उसके लिये अभिनिष्क्रमण, गृह-त्याग, वैराग्य, देहदमन, मनोदमन, कृच्छ् तपोसाधना अनिवार्य है। निवृत्ति के द्वारा वह निर्वाण में शून्य हो जाने को तैयार नहीं। वह रूप, रंग, नाम, वैविध्य के इस लीला-चंचल जीवन-जगत में.ही, निरुपाधिक निधि सुख को उपलब्ध होना चाहता है। पर कैसे ? आज तक के सारे सिद्ध निवृत्ति की राह पर ही गये हैं। उससे वह ठीक उलटी
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