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स्वाभाविक मलय- गन्ध सी बसी हुई थी । पर एक रात शैया में सहसा ही उसने वायु - विसर्जन कर दिया । एक सड़ी गन्धं से सारा सुगन्धित वातावरण विकृत हो गया । वह बहाना बना कर, तुरन्त भागा था, और दूसरी रानी के चला
गया था ।
रानी केतुमती के दाँतों में मुक्ताफलों की राशि का सौन्दर्य था । उसके ओठों में आम की फाँक-सी तराश और मिठास थी । वासना की वारुणी से वे छलकते रहते थे । एक बार चुम्बन-क्षण में उसके मुख से ऐसी तीव्र दुर्गन्ध की लपट आई, कि नन्दिषेण को मतली हो आई । वह स्नानागार में दौड़ गया । उसे वमन हो गया । और अपने ही वमन की दुर्गन्ध से उसका माथा फटने लगा । अपनी ही देह के सारे मल-मूत्र, श्लेष्म, विकार के द्वार उसे प्रत्यक्ष हो उठे । अपनी ही काया की सारी कुरूपताओं, दुर्गन्धों का उसे साक्षात्कार हो गया । वह एक तीव्र ग्लानि, विचिकित्सा, विरक्ति से भर उठा ।
नन्दिषेण को अस्तित्व असह्य हो गया । उसे प्रत्यय हो गया कि, यहाँ हर सुन्दर की परिणति अनिवार्यत: असुन्दर में होती है । मोहक देवतुल्य शिशु मरने को ही जन्म लेता है । हर यौवन यहाँ बूढ़ा होने के लिये है । हर लावण्य यहाँ मुरझा जाने के लिये है । हर रम्य कोमलता की नियति कठोर और भयानक हो जाना है। हर सुरूप को एक दिन कुरूप होना ही है। दिव्य भोजन की भी अन्तिम परिणति भिष्टा है । मधुरान्न, आम्रफल, सौंधे शाक-सब्ज़ी सबको आखिर मल में बदल जाना है । हर आहार को अन्ततः निहार होना है । उस आहार से बनने वाले रस और सप्तधातु स्वास्थ्य और कान्ति में परिणत हो कर भी, अन्ततः क्षय होते हैं, बुझ जाते हैं ।
'दिव्यतम देह के
भीतर से भी निरन्तर मल प्रवाहित है । और एक दिन उसे जरा और मृत्यु का ग्रास होना ही है। माना कि अन्नमय कोश में ही प्राण और मन की भव्य भूमिकाएं उठती हैं । रक्त की ऊष्मा में से ही सम्वेदन और ज्ञान के आकाशगामी शिखर उत्थान करते हैं । पर क्या वे हमें अमरत्व दे पाते हैं ? गहरे से गहरे प्रणय और प्यार के सम्वेदन भी निदान चुक जाते हैं, रुक जाते हैं, छूछे हो जाते हैं । इस विराट् विद्रूप और विरोध के बीच कोई क्यों जिये, कैसे जिये ?
नन्दिषेण ने इसका निराकरण कला और सर्जना में खोजा है । रक्त-मांस में व्यक्त सौन्दर्य की द्युति को उसने कविता में अमृत पिलाना चाहा है । भाव-सम्वेदन की तीव्र लौ को उसने संगीत के आलाप में अनन्त कर देना चाहा है । प्रिया की चितवन के दरद को उसने अनेक गीतों में बाँध कर, उसे
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