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देवार्य । मुझे अपना ही बिम्ब प्रदान करें, भन्ते। मैं अब प्रभु से अलग अस्तित्व में ठहर नहीं सकता।. . .' नाना तरह से वह कातर विनती करता रहा। वे सभी प्रार्थनाएँ उस कठोर वीतराग के तट से टकरा कर घायल लौट आईं। वह रो आया। दोनों घुटनों में अपनी बिलखती छाती और आँसू डूबे चेहरे को छुपा लिया। अचानक सुनाई पड़ा :
'नन्दिषेण, प्रतीक्षा कर। अभी वह परम मुहूर्त नहीं आया !'
'अबूझ है यह पहेली, नाथ । प्रति क्षण जीना दूभर है, और त्रिलोकीनाथ तक मुझे शरण नहीं दे रहे ?'
'शरण किसी त्रिलोकीनाथ में नहीं। स्वयम् तुझ में है। वहाँ उपस्थित हो, देवानुप्रिय।'
'वह मेरे वश का नहीं, भन्ते परम पिता।' 'है, मैं देख रहा हूँ। निर्णायक तू है, अर्हत् नहीं।' 'दिगम्बर हए बिना, अब देह धारण सम्भव नहीं मेरे लिये, स्वामिन् ।'
'दिगम्बर हो भी जाये, तो भी भोगानुबन्ध पूरे हो कर रहेंगे। तुझे जिसमें सुख हो, वही कर, आयुष्यमान् ।'
'तो प्रभु ने मुझे ठेल दिया? अपनाया नहीं?' .
'ठेल दिया है कि जा, अपनी वासना के छोर छु आ। लौट कर घर तो आयेगा ही। चिन्ता किस बात की ?'
'पार्थिव में मेरी वासना का उत्तर कहीं नहीं, प्रभु। उसे चरम तक भोग आया ।'
'तो परम तक भोग आ। दिगम्बर हो कर दिगम्बरी का आश्लेष कर। उस द्वार से ही हम में प्रवेश कर सकेगा।'
'मेरे तन, मन, चेतन की सब तुम जानते हो, अन्तर्यामिन् । मेरे वश का कुछ न रहा।'
'तथास्तु · · · !' 'मुझे प्रवृजित करें, भगवन् ।' भगवान ने कोई उत्तर न दिया। अन्तरिक्ष में से ध्वनि हुई :
'नन्दिषेण, अभी समय नहीं आया। मोह की अन्तिम महारात्रि सम्मुख है। उस में जा।'
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