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________________ सम्भव के जगत में उसका पैर नहीं टिक पाता। वह अपने छन्दों, रंगों, टाँकियों और टंकारों से असम्भव के शून्यों में छलाँगें भरता है, अगम्यों के द्वारों को खटखटाता है, वीरानियों को अपने उच्छवासों की तड़प से बेचैन कर देता है । परिणाम यह हुआ है कि पार्थिव में वह नितान्त अकेला पड़ गया है । यहाँ कोई संगी-साथी न पा सका है। मगधेश्वर के दरबार और रनिवासों में वह कौतुक, कौतूहल और परिहास का विषय बना रहता है । पर वह इतना गुमशुदा और खोया है, कि उसे पता ही नहीं कि उसके बारे में कोई क्या कहता है ? नन्दिषेण की सबसे बड़ी वेदना यह है, कि जिन सौन्दर्यों, पूर्णत्वों, दिव्यताओं के सपने वह अपनी कला में रचता है, उन्हें जीवन में कैसे साक्षात् और साकार किया जाये। सृजन और जीवन के बीच एक अथाह खाई पड़ी हुई है । जो वह जीवन में देखता है, भोगता है, अनुभव करता है, उसकी सम्वेदना को वह अपनी कला में केवल ज्यों का त्यों आलेखित कर चैन नहीं पाता । वह केवल प्रतिक्रिया पर नहीं रुकता। अपनी अत्यन्त निजी क्रिया के उपोद्घात से यहाँ के सारे भोगे हुए सम्वेदन को किसी ऊर्ध्व में उत्क्रान्त करना चाहता है, जहाँ वह अनुभव अक्षुण्ण रह सके। पर उस ऊर्ध्व में जो शाश्वती खुलती है, जो एक अपूर्व विभा का सोता फूटता है, उसे वह जीवन की माटी में क्यों नहीं खींच और सींच पाता? अभी-अभी अपने वातायन से वह देख रहा है : सुदूर वैभार पर्वत की वनालियों में पूनम का बड़ा सारा चम्पई चन्द्रमा उगा आ रहा है। उसकी आभा में वनिमा की पत्तियाँ और बारीक डालें हिल रही हैं। · · ·और ठीक वहीं मानो किसी अनवद्या का अपूर्व सौन्दर्य-मुख झाँक रहा है। · · ·और वह छटपटा कर रह जाता है । वह मुख उसके अन्तःपुर में क्यों नहीं आता ? वह निरा वायवीय क्यों है ? वह ठोस पदार्थ में आकृत हो कर उसकी बाँहों में क्यों नहीं आ पाता? सामान्य लोग जैसे इस जगत के यथार्थ को देखते और स्वीकारते हैं, उस तरह नन्दिषेण नहीं कर पाता । यहाँ की जिन त्रुटियों और सीमाओं पर औरों की निगाह तक नहीं जाती, वे उसके चित्त में फाँस की तरह गड़ कर, कसकती रहती हैं। लावण्य और यौवन की आभा से दीप्त चेहरों में जो ह्रास की प्रक्रिया बेमालूम चलती रहती है, उस पर उसकी दृष्टि निरन्तर लगी है। · · कभी किसी सुन्दरी को पीले-गुलाबी आम्र-फल की तरह ताजा, स्निग्ध, रसाल और सुगन्धित देखा था। · · · उसकी चितवन से चितवन मिली थी, तो कैसी मधुर चोट हुई थी। भाव और कल्पना की अपार तरंगें उठी थीं। मिलन की अद्भुत मोहोष्मा जागी थी। मानो कि कोई अलौकिक घटना घटी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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