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________________ १८९ · · ·संसार है कि सारे तीर्थंकर, अवतार और शलाका पुरुष जन्मे हैं। उन्होंने इस जगत के सुखों और ऐश्वर्यों को छोरों तक भोगा है, और इस पृथ्वी पर खड़े रह कर ही उन्होंने मोक्ष तक का अनाहत पराक्रम किया है। और सिद्धालय के मोक्ष धाम में बैठ कर भी आखिर वे क्या कर रहे हैं ? जिनेश्वरों ने कहा है कि वे सिद्धात्मा निरन्तर इस जगत और जीवन को देख और जान रहे हैं। देखना-जानना ही उनका एकमात्र अस्तित्व है, उनका जीवन है। उनका तो शरीर भी ज्ञान है, और आत्मा भी ज्ञान है। यह जगत-जीवन और संसार न हो, तो वे क्या देखें, क्या जानें? यह विश्व-सत्ता, यह निरन्तर गतिमान सृष्टि ही तो उनके ज्ञान का विषय है, ज्ञेय है। तब क्या यह ज्ञेय ही उनका सार-सत्व नहीं? तो फिर उसे त्याग जाने का क्या अर्थ है ? यदि यह निरर्थक मिथ्या-माया है, तो अजीब हैं वे सिद्ध, जो हर पल इसे जानने के प्रमाद और गोरख धन्धे में पड़े हैं। नन्दिषेण को लग रहा है, कि ये सारे संन्यासी और सिद्ध इस जगत को पूर्णत्व तक रचने और भोगने में असमर्थ पराजित हो कर इससे पलायन कर गये हैं। उसके मन में एक अटल हठ है, कि नहीं, वह इस सृष्टि से भागेगा नहीं, हो सके तो इसे बदलेगा। इसकी सारी त्रटियों और सीमाओं का अतिक्रमण कर इसे पूर्णत्व में जिये और भोगेगा। इसमें अपने स्वप्न और अभीप्सा को रचेगा, साकार करेगा। मगधेश्वर की अज्ञात कुल-शील रानी बिन्दुमती का पुत्र नन्दिषेण बड़ी ही सूक्ष्म सुकोमल संवेदना का कवि है। वह अलौकिक रंग-प्रभाओं का चित्रकार है । वह अन्तरिक्ष के गूढ़तम प्रकम्पनों का संगीतकार है । उसका वेदन-तंत्र इतना नाजुक और संस्पर्शी है, कि हवा की एक बेमालूम लहर, एक पत्ती का हिलना तक उसे विचित्र स्पन्दनों से कँपा देता है । प्रकृति के विराट् सौन्दयों के बीच जब वह खड़ा होता है, तो उसके शरीर में रोमाचनों के हिलोरे आते हैं। किसी चेहरे की विचित्र विदग्ध भंगिमा, किन्हीं गुज़रती आँखों की चितवन से वह अनायास घायल हो उठता है । एक अजीब अलक्ष्य विरह से वह कातर हो जाता है। उसकी आँखों में आँसू आ जाते हैं । ___ उसने अपने सर्जन में इस सृष्टि के सूक्ष्मतम और अदृश्य सौन्दर्यों तक को रचा है। अगम के रहस्यों को अपने चित्रों और शिल्पों में खोला है। अनहद को अपने संगीत के स्वर-ग्रामों में बाँधा है। अपनी 'समुद्र-मेखला' वीणा में उसने चेतना के अब तक अगम्य प्रदेशों को पकड़ने के लिए नये तारों और सप्तकों का आविष्कार किया है । कुछ भी दोहराना उसे रुचिकर नहीं है । शास्त्र के बन्धनों और तंत्रों को तोड़ कर उसने कलाओं को पर्वती हवाओं की तरह स्वच्छन्द बनाया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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